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कषायोपशमेन विना सिद्धिर्दुलभा
हृदयसरसि यावनिर्मलेऽप्यत्यगाधे वसति खलु कषायग्राहचकं समन्तात् । श्रयति गुणगुणोऽयं तन्न तावद्विशङ्कं सयमशमविशेषस्तान् विजेतुं यतस्व ॥२१३॥ हित्वा हेतुफले किलात्र सुधियस्ता सिद्धिमामुत्रिकी
वाञ्छन्तः स्वयमेव साधनतया शंसन्ति शान्तं मनः । त्यादि । क्लेशासहो यत: । चित्तसाध्यान् मनसा निर्जेतुं शक्यान् ।।२१२॥ कपायाणामजये मुक्तिहेतुगुणानां उत्तमक्षमादीनां प्राप्तिरतिदुरीमा इत्याह-हृदयेत्यादि । हृदयसरसि हृदय रोवरे । गुणगणः उतमक्षमादिगुग संघातः । अयं मोक्षहेतुतयाभित्रेतः । तत् हृदयसरः । विशझं निःशङ्कर सपनरा विशेषैः सह यमेन व्रतेन वर्तन्ते इति सयमास्ते च ते शमविशेषाश्च तीव्र-मन्द-मध्यमा उपशम भेदाः । यतस्त्र उद्यतो भव ॥ २१३ ॥ कषायविजयं मोझहेतुतया स्वयं प्रतिपाद्य पुनः कषायाधीनतां गतानुपहसन्नाह--- हित्वेत्यादि । हित्वा त्यक्त्वा । के । हेतुफले विषय--तत्सुखे, अथवा हेतुनिःसंगत्वादिः फलं तत्कार्य शान्तं मनः ।
जाय । परन्तु जो राग,द्वेष,एवं क्रोधादि आत्माका अहित करनेवाले हैं उनको तो भले प्रकारसे जीता जा सकता है । कारण कि उनके जीतनेमें न तो तपके समान कुछ कष्ट सहना पडता है और न मनके अतिरिका किसी अन्य सामग्रीकी अपेक्षा भी करनी पड़ती है । इसलिये उक्त रागद्वेषादिको तो जीतना ही चाहिये । फिर यदि उनको भी प्रागो नहीं जीतना चाहता है तो यह उसकी अज्ञानता ही कही जावेगी ॥२१२।। निर्मल और अयाह हृदयरूप सरोवरमें जब तक कषायोंरूप हिंस्र जल. जन्तुओंका समूह निवास करता है तब तक निश्वयसे यह उतम क्षमादि गुणोंका समुदाय निःशंक होकर उस हृदयरूम सरोवरका आश्रय नहीं लेता है । इसीलिये हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीत्र-मध्यमादि उपशम. भेदोंसे उन कषायोंके जीतनेका प्रयत्न कर ॥२१३॥ जो विद्वान् परिग्रहके त्यागरूम हेतु तथा उसके फलभूत मनकी शान्तिको छोडकर उस पारलौकिक सिद्धिकी अभिलाषा करते हर स्वयं ही उसके साधनस्वरूपसे शान्त मनकी प्रशंसा करते हैं उनका यह कार्य आखु-बिडालिकाके समान