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आत्मानुशासनम्
[ श्लो० २१४
तेषामाखुबिडालिकेति तदिदं धिधिक्कलेः प्राभवं येनैतेऽपि फलद्वयप्रलयना दूरं विपर्यासिताः ॥२.१४॥ उद्युक्तस्त्वं तपस्यस्यधिकमभिभवं त्वामगच्छत् कषायाः प्राभद्बोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ कि तु दुर्लक्ष्यमन्यैः ।
frocreat | आमुत्रिकीं पारलौकिकीम् । शंसन्ति श्लाघन्ते । शान्तं मनः उपशान्तं चित्तम् । अथ च कषायवशवर्तनं न परित्यजन्ति तेषाम्माखुबि - डालिकेति - आखुश्च मूषकः बिडालश्च तयोरिव वैरम् । प्राभवं । प्रभुत्वम् ॥ येन प्राभवेन । एतेऽपि सुधियोऽपि फलद्वयप्रलयनात् ऐहिक - पारत्रिकफलद्वयविनाशात् । दूरं विपर्यासिताः अतिशयेन वञ्चिताः ॥ २१४ ॥ कषायविनिग्रहं च कुर्वता त्वया सातिशयतपोज्ञानसंपन्नेन मात्सर्यलेशोऽप्युन्मूलयितव्य इति
है । यह सब कलि कालका प्रभाव है, उसके लिये धिक्कार हो । इस aforma प्रभावसे ये विद्वान् भी इस लोक और परलोक सम्बन्धी फलको नष्ट करने से अतिशय ठगे जाते हैं । विशेषार्थ - जिन्होंने न तो परिग्रहको छोड़ा है और न कषायों को भी उपशान्त किया है वे विद्वान् पारलौकिक सिद्धिकी अभिलाषा करके उसके साधनभूत अपने शान्त मनकी केवल प्रशंसा करते हैं । उनके इन दोनों कार्यों में बिल्ली और चूहे के समान परस्पर जातिविरोध है । कारण कि जब तक परिग्रह और राग-द्वेषादिका परित्याग नहीं किया जाता है तब तक मन शान्त हो ही नहीं सकता । ऐसे लोग इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों के सुखको नष्ट करते हैं । इस लोकके सुखसे तो वे इसलिये वंचित हुए कि उन्होंने बाह्य विषयों को छोड़ दिया है। साथ ही चूंकि वे अपने मनको शान्त कर नहीं सके हैं, इसलिये पाप कर्मका उपार्जन करनेसे परलोकके भी सुखसे वंचित होते हैं ॥ २१४॥ हे भव्य ! तू तपश्चरणमें उद्यत हुआ है, कषायों का तूने अतिशय पराभव कर दिया है, तथा समुब्रमें स्थित आगाध जलके समान तेरेमें अगाध ज्ञान भी प्रगट हो चुका
1 ज स प्रभावं । 2 ज स प्रभावेन ।