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आत्मानुशासनम् ।
एक मात्र गुणके कारण वस्तुको ग्रहण करता है तथा केवल दोषके कारण ही उसका परित्याग करता है१ (१४५) । परंतु यह तब ही संभव है जब कि उसे गुण-दोषोंका परिज्ञान हो चुका हो । इसलिये जो दोषों और गुणोंको जानकर तथा उनके कारणोंको खोजकर दोषोंके परित्यागपूर्वक गुणोंको ग्रहण कर लेता है वह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमर्गका पथिक होकर सुख और यश दोनोंका भाजन होता है (१४७) ।
साधुओंकी असाधता भोगभूमिकालमें न अपराध होते हैं और न इसीलिये उनके परिमार्जनके लिये कोई दण्डव्यवस्था भी नियत रहती है। किंतु उस भोग भूमिकालके अंतमें जब कल्पवृक्षोंसे उपलब्ध होनेवाली सामग्री उत्तरोत्तर क्षीण होने लगती है तब क्रमशः अपराधोंका भी प्रादुर्भाव होने लगता है। इसके लिये समयानुसार कुलकर क्रमसे हा, हा-मा और हा-मा-धिक् इन तीन दंडोंको नियत करते हैं । तत्पश्चात् कर्मभूमिके प्रारंभमें जब अपराध बढने लगते हैं तब राजाओंके द्वारा शारीरिक और आर्थिक दंड भी निर्धारित किये जाते हैं। वर्तमान कलिकालमें - पंचमकालमें - एक दण्डनीति ही प्रधान है जो राजाओंके स्वाधीन है । सो वे उसका उपयोग केवल आर्थिक लाभकी दृष्टिसे किया करते हैं। चूंकि वनवासी दिगंबर साधुओंसे उक्त अर्थलाभ की संभावना है नहीं,अतएव दोषोंको देखते हुए भी राजा लोग तो उनकी ओर ध्यान देते नहीं हैं। अब रही आचार्योंकी बात,सो वे नमस्कारके प्रेमी हैं। यदि वे संघके अन्य साधुओंके दोषोंको देखकर उनके १. हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुण-दोषप्रतिते।।
स्यातामादान-हाने चेत्तद्धि सौजन्यलक्षणम् ॥ क्ष. चू. ५-१९. २. तत्राद्यः पञ्चभिर्नृणां कुलद्भिः कृतागसाम् ।
हा-कारलक्षणो वण्डः समबस्थापितस्तदा ॥ हा-माकारश्च दण्डोऽन्यः पञ्चभिः संत्रवर्तितः । पञ्चमिस्तु ततः शेषा-मा-धिक्कारलक्षणः ॥ शरीरदण्डनं चैव वध-बन्धादिलक्षणम् । नृणां प्रबलोषाणां भरतेन नियोजितम् ॥ आ. पु. ३, २१४-१६