________________
आत्मानुशासनम् [इलो० १४यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गों कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टि संजातात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि: । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगायोत्थिता यावगाढा
कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥१४॥ सा बीजदृष्टि: । पदार्थानित्यादि । तत्त्वार्थसिद्धान्तसूत्रलक्षणद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान् जोवादीन् संक्षेपेणैव बुद्ध्वा तेषु रुचिम् उपगतवान् आत्मव अभेदवृत्त्या साधु समीचाना3 संक्षपदृष्टि: उच्यते ॥१३।। य: श्रुत्वेत्यादि । द्वादशाङ्गानां समाहारो द्वादशाङ्गी तां श्रुत्वा । तःप्रतिपादितेषु अर्थेषु य: कृतरुचि: । अथ अहो । तमात्मानम् अभेदवृत्त्या विद्धि जानीहि विस्तारदृष्टिम् । संजातेत्यादि । अर्थात् कुनश्चिन अङ्गबायप्रवचनप्रतिपादितात् । प्रवचनज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाले भव्य जीवके जो दर्शनमोहनीयके असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। जो भव्य जीव पदार्थों के स्वरूपको संक्षेपसे ही जान करके तत्त्वश्रद्धानं (सम्यग्दर्शन) को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शनको संक्षेपसम्यग्दर्शन कहा जाता है ॥१३॥ जो भव्य जीव बारह अंगोंको सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शनसे युक्त जानो, अर्थात् द्वादशांगके सुननेसे जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते हैं । अंगबाह्य आगमोंके पढने के विना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थके निमित्तसे जो अर्थश्रद्धान होता है अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगोंके साथ अंगबाह्य श्रुतका अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढसम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके द्वारा देखे गये पदार्थोके विषयमें रुचि होतो है वह यहां परमावगाढसम्यग्दर्शन इस नामसे प्रसिद्ध है. ॥ विशनार्थ- श्लोक १२, १३ और १४ में सम्यग्दशनके जिन दस भदोंका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है वे प्रायः उत्तरोत्तर विकासको प्राप्त हुए हैं। यथा--प्रथम आज्ञासम्यक्त्वमें जीव शास्त्राभ्यासके विना केवल सर्वज्ञ वीतराग देवकी आज्ञापर
ही विश्वास करता है। उसे यह निश्चल श्रद्धान होता है कि जिनेन्द्र देव .. 1 स तां । 2 (नि. सा) प्रतिपाठोऽयम्, ज स र ना। 3 स समीचीन ।