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स्त्रीशरीरस्वरूपम्
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वृथा व्रजसि कि रति ननु न भीषयस्यातुरो निसर्गतरलाः स्त्रियस्त्वदिह ताः स्फुटं बिभ्यति ॥१३१॥ उत्तुङगसंगतकुचाचलदुर्गदूरमाराद्वलित्रयसरिद्विषमावतारम् । रोमावलीकुसृतिमार्गमनङगमूढाः
कान्ताकटीविवरमेत्य न केऽत्र खिन्नाः ॥१३२॥ न भयं नयति । अपि तु भीषयस्येव । आतुरः अत्युत्सकः । निसर्गतरलाः स्वभावेन कातराः । त्वदिह इह लोके त्वत्तो विकरालमूत: सकाशात् । विभ्यति भयं गच्छन्ति ।।१३१।। यत्र च स्थाने त्वं रति करोषि तदीदृशमिति दर्शयन् उत्त (तु) ङगेत्यादि श्लोकत्रयमाह--उत्तुङगो उन्नतरै संयती स्थूलतया परस्परसंलग्नौ तौ च तो कुचौ च तो एव अचलदुर्ग: मिरिदुर्गः तेच दूरं दुःप्राप्यम् । आरात् समीपे । वलीत्यादि--वलिवयमेव सरितस्ताभिविषमो दुःकर्मोपार्जनहेतुतया दुःखदो अवतारः प्रवृत्तिर्यत्र । रोमेत्यादि-रोमावल्येव कुसृतिमार्गो अपाय--- भव्य जीव सब इन्द्रियविषयोंको छोडकर मनिधर्मको स्वीकार करता है
और तपश्चरणमें प्रवृत्त हो जाता है वह यदि तत्पश्चात् स्त्रियोंके विषयमें अनुरक्त होता है तो यह उसके लिये लज्जाको बात है । ऐसे ही साधुके लक्ष्यमें रखकर यहां यह कहा गया है कि हे निर्लज्ज ! तेरा यह शरीर तपके कारण मलिन एवं बीभत्स हो गया है । तू जिन स्त्रियोंको चाहता है वे तेरे इस घृणित शरीरको देखकर इस प्रकारसे भयभीत होगी जिस प्रकार कि मनुष्य अधजले 'मृतशरीर (मुर्दा) को देखकर भयभीत होते हैं । ऐसी अवस्थामें यह तू ही बता कि जैसे तू उन स्त्रियोंको चाहता है वैसे ही क्या वे भी तुझे चाहेगी या नहीं ? चाहना तो दूर ही रहा, किन्तु वे तुझे देखकर भयसे दूर ही भागेगीं। फिर भला तू उनके विषयमें अनुरक्त होकर व्यर्थ में अपने आपको क्यों दुर्गतिमें डालता है ? यह तेरे लिये उचित नहीं है ॥१३१॥ जो स्त्रीकी योनि ऊंचे एवं परस्पर मिले हुए स्तनोंरूप पर्वतीय दुर्गसे दुर्गम है, पास ही उदरमें स्थित त्रिवलीरूप नदियोंसे जहां पहुंचना भयप्रद है, तथा जो रोमपंक्तिरूप इधर उधर