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आत्मानुशासनम् [श्लो० १३०हन्तैते शरणैषिणो जनमृगाः स्त्रीछद्मना निर्मितं घातस्थानमुपाश्रयन्ति मदनव्याधाधिपस्याकुलाः ॥ १३०॥ अपत्रप तपोऽग्निना भयजुगुप्सयोरास्पदं शरीरमिदमर्धदग्धशववन्न किं पश्यसि ।
सप्तमीप्राप्ती अभिना योगे द्वितीया भवति । सर्वतश्चतुदिक्षु । हन्त अहो । जनमृगाः जना एव मृगाः । स्त्रोछद्मना स्त्रीव्याजेन । मदनव्याधाधिपस्य मदनः कामः स एव व्याधाधिप व्याधप्रधानः । आकुला व्याकुलचित्ताः ।। १३० ॥ एवं बाहयेषु विप्लवहेतुषु प्रवृत्ति प्रतिषेध्य अन्तरङगेषु तां प्रतिषेधयन्नाह-- अपत्रपेत्यादि । त्रपा लज्जा सा अपक्रान्ता नि:क्रान्ता यस्मादसी अपत्रपः, तस्य संबोधनं हे अपत्रप। जुगुप्सा निन्दा । आस्पदं स्थानम् । अर्धदग्धमृतकवत् । रतिम् आसक्तिम्, विषयेषु प्रवृत्तौ अन्तरङ्गहेतुम् । ननु अहो न भीषयसि
प्राप्त करनेकी इच्छासे उस स्त्रीरूप घातस्थानको प्राप्त होते हैं जो मानों उनके नष्ट-भ्रष्ट करनेके लिये ही बनाया गया है। अभिप्राय यह है जिस प्रकार हिरण अज्ञानतासे अपना ही वध करानेके लिये शिकारियों द्वारा निर्मित वधस्थानमें जा फंसते हैं उसी प्रकार ये अविवेकी प्राणी भी विषयतृष्णाके वशीभूत होकर उसको शान्त करनेकी इच्छासे स्त्रीका आश्रय लेते हैं । परन्तु होता है उससे विपरीत-- जिस विषयतृष्णाको वे शान्त करना चाहते थे वह स्त्रीका आश्रय पाकर उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धिको ही प्राप्त होती है । परिणाम यह होता है कि इस प्रकार विषयविमूढ होकर प्राणी धर्माचरणको भूल जाता है और पापका संचय करता है जिससे कि वह दुर्गतिमें पडकर अनेक दुःखोंको भोगता है ॥ १३० ॥ हे निर्लज्ज ! यह तेरा शरीर तपरूप अग्निसे अधजले शव (मृत शरीर) के समान भय और घृणाका स्थान बन रहा है । क्या तू उसे नहीं देखता है? फिर तू उत्सुक होकर व्यर्थमें क्यों स्त्रियोंके विषयमें अनुरागको प्राप्त होता है। ऐसे शरीरको धारण करता हुआ तू उन स्त्रियोंके लिये भयको न उत्पन्न कराता हो सो बात नहीं है, किन्तु उन्हें निश्चयसे भयको प्राप्त कराता ही है । संसारमें स्त्रियां स्वभावसे ही कातर होती हैं । वे तेरे भयानक शरीरको देखकर स्पष्टतया भयभीत होती हैं। विशेषार्थ--जो