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मोक्षमार्गे बाधका सामग्री इह हि बहवः प्रास्तप्रज्ञास्तटेऽपि पिपासवो विषयविषमग्राहग्रस्ताः पुनर्न समुद्गताः ॥ १२९ ॥ पापिष्ठर्जगतीविधीतमभितः प्रज्वाल्य रागानलं
क्रुद्धरिन्द्रियलुब्धकर्मयपदैः संत्रासिताः सर्वतः । पिपासव: अनुभवितुमिच्छवः । विषयेत्यादि । विषया एव विषमग्राहो रौद्रजल वरः तेन ग्रस्ताः कवलिताः । न समुद्गता: न निर्गता ॥ १२९ ।। पापिष्ठैः पापरतैः । क्रुद्धः उत्कट: अपायहेतुभिर्वा । भयपदैः भयस्थानः। इन्द्रियलुब्धकैः इन्द्रियासक्तैः।। प्रज्वाल्य रागानलं राग एव अनल: अग्निः तम् । क्व । जगतीविधीतमभितः जगती जगत् सैव विधीतं विडम्बितम् । तस्मिन् इति पाते हैं उसी प्रकार बहुत-से अज्ञानी प्राणी भी विषयतृष्णासे व्याकुल होकर उन स्त्रियोंके पास पहुंचते हैं और हिंस्र जलजन्तुओंके समान अतिशय भयानक विषयोंसे ग्रस्त होकर-उनमें अतिशय आसक्त होकर-फिर नहीं निकलते अर्थात् नरकादि दुर्गतियोंमें पडकर फिर उत्तम मनुष्यादि पर्यायको नहीं पाते हैं ।। १२९ ॥ अतिशय पापी, क्रूर एवं भयको उत्पन्न करनेवाले इन्द्रियोंरूप अहेरियों (शिकारियों) के द्वारा संसाररूप विधीत (मृग व सिंहादिके रहनेका स्थान) के चारों ओर रागरूप अग्निको जलाकर सब
ओरसे पीडाको प्राप्त कराये गये ये मनुष्यरूप हिरण रक्षाकी इच्छास व्याकुल होकर स्त्रीके छलसे बनाये गये कामरूप व्याधराज (अहेरियोंका स्वामी) के घातस्थान (मरणस्थान) को प्राप्त होते हैं, यह खेदकी बात है ॥ विशेषार्थ--- दुष्ट अहेरी मृगादिकोंका घात करनेके लिये उनके निवासस्थानके चारों ओर आग जला देते हैं जिससे वे भयभीत होकर रक्षाकी दृष्टि से उस स्थानको प्राप्त होते हैं जो कि अहेरियोंके द्वारा उनका ही घात करने के लिये बनाया गया है। इस प्रकारसे वे वहां जाकर उनके द्वारा मारे जाते हैं । ठीक इसी प्रकारसे उन अहेरियोंके समान दुष्ट इन्द्रियां इस संसारमें प्राणियोंको विषयासक्त करनेके लिये उन विषयोंके प्रति रागको उत्पन्न कराती हैं, जिससे व्याकुल होकर वे प्राणी उन मृगोंके ही समान शान्ति
1ज इन्द्रियाशक्तः।