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आत्मानुशासनम्
विना सम्भव नहीं है । कारण यह कि उक्त विषयसुख जिस पुण्यके ऊपर निर्भर है वह विना धर्माचरणके नहीं होता है। इसीलिये तो तत्त्वार्थसूत्र (६-३) में शुभयोगको पुण्यका आस्रव और अशुभयोगको पापका आस्रव बतलाया गया है । यह शुभयोग अहिंसा,सत्य एवं अचौर्य आदि स्वरूप है और इसीका नाम धर्माचरण है । इसके विपरीत हिंसा,असत्य एवं चोरी आदि स्वरूप अशुभयोग है जो पापबंधका कारण है। इस पुण्य पापको ही यहां दैव कहा गया है (२६२) । उस धर्मकी महिमाको प्रकट करते हुए यहां यह निर्दिष्ट किया गया हैं कि जब वे सब इन्द्रिय विषय धर्मरूप वृक्षके ही फल हैं तब जिस प्रकार फलोंकी अभिलाषा रखनेवाले उपभोक्ता जन उस वृक्षका संरक्षण करते हुए ही उसके फलोंका उपभोग किया करते हैं उसी प्रकार सुखाभिलाषी विवेकी जन भी उक्त धर्मका परिपालन करते हुए ही क्यों न उस विषयसुखका उपभोग करें [१९॥ , यहां देवके उपर बल देकर इंद्रका उदाहरण देते हुए यह बत
गया कि जिस इन्द्रका मंत्री तो बृहस्पति, शस्त्र वज्र,सैनिक देव,किला स्वर्ग और हाथी ऐरावत था तथा जिसके ऊपर साक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी था; वह इस आश्चर्यजनक बलसे संयुक्त इंद्र भी जब शत्रुओंके द्वारा पराजित किया गया है तब अन्य साधारण जनकी तो बात ही क्या हैं? इससे जाना जाता है कि जीवोंका रक्षक एक मात्र दैव ही है, उसके आगे पौरुषका कुछ वश नहीं चलता (३२) । यदि पूर्वोपार्जित पुण्य शेष है तो प्राणोके लिये आयु, धन-सम्पत्ति एवं शरीर आदि रूप सब ही अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है और यदि वह (पुण्य) शेष नहीं है तो फिर प्राणी उसको प्राप्तिके लिये कितना भी परिश्रम क्यों न करे, परंतु वह कदाचित् भी उसे प्राप्त नहीं हो सकती है ।
दुष्ट देवकी प्रबलताको दिखलाते हुए यहां (११८-१९) ग्रन्थकारने भगवान् आदिनाथका उदाहरण देकर यह बतलाया है कि जिन ऋषभ जिनेंद्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ जानकर छोड दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था. वे ही भगवान् क्षुधित होकर दीनकी तरह दूसरोंके घरोंपर घूमे, परंतु उन्हें भोजन प्राप्त नहीं हुआ।