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है उसके होनेपर यदि चारित्र न भी हो तो भी प्राणी मोक्षके मार्गमें स्थित हो जाता है । किंतु उसके विना बाह्य महाव्रतादिरूप चारित्रके होनेपर भी जीव मोक्षमार्ग में स्थित नहीं हो पाता है। इसी कारण ऐसे महाव्रतीकी अपेक्षा उस व्रतहीन सम्यग्दृष्टि गृहस्थको ही श्रेष्ठ बतलाया गया है १ । वह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट माना जाता है । कारण यह है कि जिस प्रकार बीजके विना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अवस्थित रहता है, न बढता है; और न फलोंको भी उत्पन्न कर सकता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते हैं, न अवस्थित रह सकते हैं, न बढ सकते हैं और न मोक्षरूप फलको भी उत्पन्न कर सकते हैं२ । इसलिये मोक्षकी प्राप्तिका मूल कारण इस सम्यग्दर्शनको ही समझना चाहिये ।
उस सम्यग्दर्शनके यहां ये दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्व और परमावगाढसम्यक्त्व ३ ।
प्रस्तावना
दैवकी प्रबलता
धर्मका असली प्रयोजन तो निराकुल मोक्षसुखकी प्राप्ति है । साथ ही प्राणियोंको जो इन्द्रियजनित सुख प्राप्त होता है वह भी उस धर्म के १. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥ र. श्री. ३३. २. विद्यावृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः ।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।। र. श्री. ३२. ३. इनका स्वरूप श्लोक १२-१४ में देखिये । आचार्य गुणभद्रने सम्यक्त्वके इन १० भेदोंका उल्लेख अपने उत्तरपुराण (७४, ४३९ - ४९ ) में भी किया है । यह आत्मानुशासनका श्लोक (११) श्री सोमदेव सूरिके द्वारा अपने यशस्तिलक ( उत्तर खण्ड पृ. ३२३) में उद्धृत किया गया है। वहां उन्होंने संक्षेपमें उक्त १० भेदोंके स्वरूपका भी निर्देश किया है ।