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प्रस्तावना
७५ पीडित होता हुआ माताके द्वारा खाये हुए इष्ट उच्छिष्ट भोजनकी प्रतीक्षा किया करता है। वहां कीडोंके साथ रहता हुआ वह स्थानके संकुचित होनेसे हाथ-पैर आदिको हिला-डुला भी नहीं सकता है ।
इस अभिप्रायको कुन्दकुन्दाचार्यने भावप्राभृतकी निम्न गाथा (४०) में व्यक्त किया है१ - ___ दियसंगठ्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णंते ।
छद्दि-खरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए॥ अर्थात प्राणी दातोंके संगमें स्थित भोजनको- माताके द्वारा दांतोंसे चवाये गये उच्छिष्ट अन्नको-खाकर माताके उदरमें उसी भक्षित अन्नके मध्यमें तथा छदि (उच्छिष्ट) और खरिस (रक्तमिश्रित अपक्व मल) के मध्यमें निवास किया करता है।
लोक ८९ और ९० में यह बतलाया है कि बाल्यावस्थामें जीव हित व अहितको कुछ भी नहीं समझता है । उसने जो इस अवस्थामें कर्मके परवश होकर घृणित कार्य किया है वह स्मरण करनेके भी योग्य नहीं है । उपर्युक्त अभिप्राय भावप्राभृतकी इस गाथामें निहित है -
सिसुकाले य अयाणो असुईमज्झम्मि लोलिओ सि तुमं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण३ ॥४१॥ १. कृमिसमूहका निर्देश भावप्राभृतको पिछली गाथा३९में किया गया है। २. इस गाथाको टीका करते हुए श्री श्रुतसागर सूरिने वहां आत्मानुशासनके इस श्लोकको उद्धृत भी किया है। यहां यह स्मरण रखनकी बात है कि जीवको संबोधित करके जैसे भावप्राभूतमें 'वसिओ सिं मध्यम पुरुषका प्रयोग किया गया है वैसे ही आत्मानुशासनके उस श्लोकमें भी 'बिभेषि' मध्यम पुरुषका ही प्रयोग हुवा है।
३. इसकी टीका करते हुए श्री श्रुतसागर सूरिने आत्मानुशासनके ८९वें श्लोकको उद्धृत भी किया है । ऐसी ही एक गाथा तिलोयपण्णत्तीमें भी उपलब्ध होती है
बालत्तणम्मि गुरुगं दुक्खं पत्तो यजाणमाणेण । जोव्वणकाले मज्मे इत्थीपासम्मि संसत्तो ॥ ति.प. ४. ६२६.