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विषय-सूची
१०७ विद्वान् गुणकी अपेक्षासे वस्तुको ग्रहण और दोषकी अपेक्षासे
उसका त्याग किया करते हैं दुर्बुद्धि और सुबुद्धि प्राणियोंकी विशेषता
१४६ विना जाने गुणोंका ग्रहण और दोषोंका परित्याग नहीं होता १४७ बुद्धिमान और निर्बुद्धि कौन कहलाता है।
१४८ वर्तमानमें तपस्वियोंमें समीचीन आचरण करनेवाले विरले ही रह गये हैं
१४९ अपनेको मुनि माननेवाले वेषधारी साधुओंके संसर्गसे बचना चाहिये
१५० मुनिके पास स्वाभाविक सामग्रोके रहनेपर उसे याचनाकी आवश्यकता नहीं है।
१५१ याचक-अयाचककी निन्दा-प्रशंसा याचककी लघुता और दाताकी गुरुताका प्रदर्शन
१५३-४ जो धन समस्त अर्थी जनको सन्तुष्ट नहीं कर सकता है उसकी अपेक्षा तो निर्धनता ही श्रेष्ठ है ।
१५५ आशारूपी खान- मानरूपी धनसे ही परिपूर्ण होती है १५६-७ आहारको भी लज्जापूर्वक ग्रहण करनेवाला तपस्वी अन्य परिग्रहको कैसे ग्रहण कर सकता है
१५८ यदि साधु राग-द्वेषके वशीभूत होते हैं तो यह इस
कलिकालका ही प्रभाव समझना चाहिये कर्मकृत दुरवस्था
१६० यदि भोगोंमें ही तृष्णा है तो कुछ प्रतीक्षा करके स्वर्गको
प्राप्त करना चाहिये निर्धनताको धन और मृत्युको ही जीवन समझनेवाले निःस्पृह तपस्वीका देव कुछ नहीं कर सकता है
१६२-३ तपके लिये चक्ररत्नको छोडनेवाला महात्मा जैसे अतिशय प्रशंसाका पात्र है वैसे ही विषयसुखके लिये तपको छोडनेवाला दुरात्मा अतिशय निन्दाका पात्र है
१६४-५ तपसे पतित होनेवाला अधर्म साधु बालकसे भी गया बीता है १६६-७
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