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आत्मानुशासनम् .... [श्लो० ५६लब्धेन्धनो ज्वलत्यग्निः प्रशाम्यति निरिन्धनः । ज्वलत्युभयथाप्युच्चरहो मोहाग्निरुत्कटः ॥५६॥ कि मर्माभ्यभिनन्न भीकरतरो दुःकर्मगर्मुद्गगः किं दुःखज्वलनावलीविलसितै लेढि देहश्चिरम् ।
सहि अभिमतविषयप्राप्तौतृष्णाग्नेरुपशमात् क्लेशोशमो भविष्यतीति क्दन्तं प्रत्याहसब्धन्धन इत्यादि। निर (रि)धन इन्धनरहितः । उभयथापि वाञ्छितार्थेधनं (न्धन)प्राप्य प्राप्लेद्विप्रकारोत्कटः(?)इतराग्नेरतिशयवान्।।५६॥ विषयसुखसाधकार्थेषु प्रवृत्तिश्च प्राणिनां मोहजन्विाधिक (मा)हात्म्यात्तच्च व्याजेन निराकुर्वन्नाह-कि मर्माणीत्यादि । किं न अभिनत विदारितवान् । भीकरतर: अतिशयेन नयंकरः दुःकर्म
इन्धनको पाकर जलती है और उससे रहित होकर बुझ जाती है। परंतु आश्चर्य है कि तीव्र मोहरूपी अग्नि दोनों भी प्रकारसे ऊंची (अतिशय) जलती है । विशेषार्थ-जिस प्रकार अग्नि प्राणीको संतप्त करती है उसी प्रकार मोह भी राग-द्वेष उत्पन्न करके प्राणीको संतप्त करता है। इसीलिये मोहको अम्निकी उपमा दी जाती है। परंतु विचार करनेपर वह मोहरूप अग्नि उस स्वाभाविक अग्निकी अपेक्षा भी अतिशय भयानक सिद्ध होती है। कारण यह है कि अग्नि तो जबतक इन्धन मिलता है तभी तक प्रदीप्त होकर प्राणीको संतप्त करती है-इन्धानके म रहनेपर वह स्वयमेव शान्त हो जाती है, किन्तु वह मोहरूप अग्नि इन्धान (विषयभोग) के रहनेपर भी संतप्त करती है और उसके न रहनेपर भी संतप्त करती है । अभिप्राय यह है कि जैसे जैसे अभीष्ट विषय प्राप्त होते जाते हैं वैसे वैसे ही कामी जनोंकी वह विषयतृष्णा उत्तरोत्तर और भी बढती जाती है जिससे कि उन्हें कभी आनन्दजनक संतोष नहीं प्राप्त हो पाता । इसके विपरीत इच्छित विषयसामग्रीके न मिलनेपर भी वह दुखदायक तृष्णा शान्त नहीं होती। इस प्रकार यह विषय तृष्णा उक्त दोनों ही अवस्थाओंमें प्राणीको संतप्त किया करती है ॥५६।। हे भव्यजीव ! क्या अत्यन्त भयानक पापकर्मरूपी मधुमक्खियोंके समूहने इस प्राणीके मर्मको नहीं विदीर्ण किया है ? अवश्य किया है। क्या