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आत्मानुशासनम् - पीनेसे तुम लोग बलवान और अमर हो जाओगे। मैं उस समय ऐसा करूंगा कि वह अमृत दैत्योंको न प्राप्त होकर तुम लोगोंको ही प्राप्त होगा।
तदनुसार दैत्योंके साथ मेल-जोल करके समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत निकला उसका पान करनेसे वे सब पूर्वके समान सत्त्वशाली व तेजस्वी हो गये।
२- श्लोक ९६ में टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने निर्दिष्ट किया है कि वहां कृष्णराजके निधानस्थान (खजाना) के बहाने धर्मके स्वरूप
और उसके मार्गको बतलाया गया है। ऐतिहासिक दृष्टिसे यह कृष्णराज और उसका द्वितीय मंत्री सर्वार्थ कौन है, यह अन्वेषणीय है। यदि मूल ग्रन्थकारके समयका विचार किया जाय तो ये राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज द्वितीय होना चाहिये जिनका राजकाल ई. ८७८ से ९१२ तक पाया जाता है।
३. श्लोक ११८ और ११९ में भगवान् आदि जिनेन्द्रका उदाहरण देकर यह बतलाया है कि आत्मप्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये महान् पुरुषोंको भी कष्ट सहना पडता है। कारण कि पूर्वमें जिस अशुभ कर्मका उपार्जन किया गया है उसका फल भोगना ही पडता है, उसका उल्लंघन करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है । ( इससे सम्बद्ध कथानक ११८ वें श्लोकके विशेषार्थमें देखिये)
४. श्लोक १३५ में शंकरका उदाहरण देकर स्त्रियोंको विषसे भी भयानक बतलाया गया है । यह कथानक कवि कालिदासविरचित कुमारसंभव (सर्ग १-३) में इस प्रकार पाया जाता है--
किसी समय हिमालयकी पुत्री पार्वती अपने पिताके समीप बैठी हुई थी। उस समय स्वेच्छापूर्वक विचरण करनेवाले नारद ऋषिने उसे देखकर कहा कि यह भविष्यमें महादेवकी अर्धांगहारिणी अद्वितीय पत्नी होगी। यह सुनकर पिता हिमालयने उसे युवती देखकर भी अन्य वरकी इच्छा नहीं की। उधर प्रार्थनाभंग होनेके भयसे वह इसके लिये महादेवको भी नहीं बुला सका । कारण यह कि पार्वतीने पूर्व जन्ममें जब दक्षके क्रोधसे शरीरको छोडा था तबसे महादेवने विषयासक्तिसे रहित होकर किसी