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प्रस्तावना
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हो जाता है इसके विपरीत उक्त आगमरूप अग्निमें निमग्न होकर प्रदीप्त हुआ अभव्य जीव अंगारके समान या तो काला कोयला बनता है या फिर भस्म बनता है- जैसे अंगार बुझकर कोयला अथवा राख बन जाता है उसी प्रकार अभव्य जीव भी श्रुतका अभ्यास करके या तो मिथ्याज्ञानके प्रभावसे कदाग्रही होकर एकान्तवादका पोषक होता है या फिर तत्त्वज्ञानसे शून्य ही रहता है ( १७६) । इस श्रुतभावनाका फल प्रशस्त व अविनश्वर ज्ञानकी - अनन्तज्ञानकी प्राप्ति ही है । परन्तु अज्ञानी मिथ्यादृष्टि उस श्रुतभावनाका फल लाभ - पूजादिरूप खोजा करता है, यह उसके मोहका ही माहात्म्य है (१७५) ।
जिस प्रकार बीजसे मूल और अंकुर उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार इस मोहरूप बीजसे कर्मबन्धके कारण भूत राग और द्वेष उत्पन्न होते हैं । यह मोहबीज उस ज्ञानरूप अग्निके द्वारा ही भस्मसात् किया जाता हैज्ञानको छोडकर उसके नष्ट करनेका अन्य कोई उपाय सम्भव नहीं है ( १८२ ) । जैसे मथानी में लिपटी हुई रस्सीको जबतक एक ओरसे ढीली करके दूसरी ओरसे खींचते रहते हैं तबतक वह मथानी दहीकी मटकीमें घूमती ही रहती है । इसके विपरीत यदि उसे दोनों ही ओरसे ढीला कर दिया जाता है तो फिर उस रस्सीको बन्धने और उकलने रूप क्रियाके समाप्त हो जानेसे उस मथानीका घूमना भी सर्वथा बन्द हो जाता है । ठीक इसी प्रकारसे जीवकी जबतक एक वस्तुसे रागबुद्धि और दूसरीसे द्वेषबुद्धि रहती है तबतक कर्मका बन्ध और निर्जरा ( सविपाक ) इन दोनोंके निरंतर चालू रहनेसे उसका संसारमें परिभ्रमण होता ही रहता है । किंतु जैसे ही उसके उक्त राग और द्वेष दोनों उपशान्त हो जाते हैं वैसे ही बन्ध और उस निर्जराके समाप्त हो जानेसे उसका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है ( १७८-७९) ।
वास्तविक शत्रु कौन है ?
जन्म और मरणका नाम संसार है । सो ये दोनों शरीरसे संबद्ध हैं । प्रथमतः शरीर उत्पन्न होता है, उससे संबद्ध इंद्रियां होती हैं, वे इष्ट विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय परिश्रम, अपमान, भय एवं पापको