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आत्मानुशासनम् ...
[श्लो० १७८
उपार्जननिर्जरे । ते वेष्टनोद्वेष्टने यावत् तावत् जन्तोः भ्रान्तिः भ्रमणम् । भवार्णवे संसारसमुद्रे । काभ्याम् । आवृत्तिपरिवृत्तिभ्यां गमनागमनाभ्याम् आकर्षण-मोचनाभ्याम् इत्यन्यत् ॥ १७८ ।।
ओरसे खींचने और दूसरी ओरसे कुछ ढीली करनेके समान है, तथा उससे होनेवाला बन्ध और सविपाक निर्जरा उस रस्सीके बंधने और उकलनेके समान है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मथानीमें लिपटी हुई रस्सीको एक ओरसे खींचने और दूसरी ओरसे ढीली करनेपर वह रस्सी बंधती व उकलती ही रहती है तथा इस प्रकारसे वह मथनदण्ड बराबर घूमता ही रहता है- उसे विश्रान्ति नहीं मिलती। हां, यदि उस रस्सीको एक ओरसे सर्वथा छोडकर दूसरी ओरसे पूरा ही खींच लिया जाय तो फिर उसका इस प्रकारसे बंधना और उकलना चालू नहीं रह सकेगा। तब मन्थनदण्ड स्वयमेव स्थिर-- परिभ्रमणसे रहित--हो जावेगा। ठीक इसी प्रकारसे जबतक जीवकी राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति चालू रहती है तबतक वह कर्मोंका बन्ध करके और उनका फल भोगकर निर्जरा भी करता ही रहता है । कारण यह कि राग-द्वेषसे जिन नवीन कर्मोका बन्ध होता है उनके उदयमें आनेपर जीव तत्कृत सुखदुःखरूप फलको भोगता हुआ फिर भी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है । इस प्रकारसे यह क्रम जबतक चालू रहता है तबतक प्राणी चतुर्गतिरूप इस संसारमें परिभ्रमण करता ही रहता है । परन्तु यदि वह रागद्वेषसे बांधे गये उन कर्मोको तपश्चरणादिके द्वारा अविपाक निर्जरास्वरूपसे नष्ट कर देता है तो फिर राग-द्वेषरूप परिणतिसे रहित हो जानेके कारण उसके नवीन कर्मोंका बन्ध नहीं होता है । और तब संवर एवं निर्जराके आश्रयसे उसका संसारपरिभ्रमण भी नष्ट हो जाता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि जबतक प्राणी राग-द्वेषरूप परिणमन करता है
तक उसका चित्त स्थिर नहीं रह सकता है, और जबतक चित्त स्थिर नहीं होता है तबतक ध्यानकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतएव ध्यानकी प्राप्तिके लिये राग-द्वेषसे रहित होना अनिवार्य है ॥ १७८ ॥