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संवर-निर्जरावतः केवलज्ञानं प्रादुर्भवति
उदासीनस्तस्य प्रगलति पुराणं न हि नवं समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव ॥ २६३ ॥ सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन्
ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा ।
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एवंविधभावनाया: । एष प्रकृष्टसंवर- निर्जरावानात्मा । स्फुरति सकलस्व- पररूप प्रकाशयति । सुविदग्ध अतिनिर्मल सुष्ठुविवेकी ।। २६३ ।। पुराणस्य कर्मणो निर्जरायाम् अभिनवस्य च संवरे यज्जातं तद्दर्शयन्नाह--- सकलेत्यादि । सकलविमलबोधः केवलज्ञानम् । देहगेहे देह एव गेहं तत्र । विनिर्यन् विनिर्गच्छन्, अर्हदावस्थायां प्रादुर्भवन् इत्यर्थः प्रज्वलति । प्रकाशते तदभावे देहगेहाभावे सिद्धावस्थायां पुनरपि सकलविमलबोधः प्रज्वलति । उज्ज्वलो निर्मलः सन् । किं कृत्वा । भस्मयित्वा विनाशयित्वा । किं तत् । काष्ठम् । काष्ठमिव काष्ठम् अचेतनशरीरम् । कथं भस्मयित्वा । निष्ठुरं निर्दयं यथा भवति, निःशेषं विनाशेत्यर्थः । क
रहनेवाला नहीं है । इसलिये उसमें अनुराग करना उचित नहीं है । इसी प्रकार दुख पापकर्मके उदयसे होता है । यदि पूर्वमें पापकर्मका संचय किया है तो उसके फलको भोगना ही पडेगा । फिर भला उसमें खेद क्यों ? इस प्रकार के विचारसे विवेकी जीव सुख और दुखमें चूंकि हर्ष और विषादसे रहित होता है, अतएव उसके पुनः नवान कर्मका बन्ध नहीं होता है । साथ ही उसके पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है । इस प्रकारसे वह संवर एवं निर्जरासे युक्त होकर समस्त कर्मोंसे रहित होता हुआ मुक्त हो जाता है || २६३ ।। सम्पूर्ण निर्मल ज्ञान ( केवलज्ञान ) शरीररूप गृहमें प्रगट होकर जिस प्रकार लकडी में प्रगट हुई अग्नि निर्दयतापूर्वक उस लकडीको भस्म करके उसके अभाव में फिर भी निर्धूम जलती रहती है उसी प्रकार वह भी शरीरको पूर्णतया नष्ट करके उसके अभावमें भी निर्मलतया प्रकाशमान रहता है । ठीक है - मुनियोंका चरित्र सब प्रकारसे आश्वर्यंजनक है ।। विशेषार्थ- जिस प्रकार लकडीमें लगी हुई अग्नि जबतक वह लकडी शेष रहती है तबतक तो जलती ही है, किन्तु उसके पश्चात् भी - उक्त लकडीके निःशेष हो जानेपर भी - वह
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