________________
परलोकविशुद्धयर्थं महामोहस्त्यक्तव्यः
क्षीरनीरवदभेदरूपतस्तिष्ठतोरपि च देहदेहिनोः ।
भेद एव यदि भेदवत्स्वलं बाह्यवस्तुषु वदात्र का कथा ॥ २५३ ॥ तप्तोऽहं देहसंयोगाज्जलं वानलसंगमात् । इति देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणः ॥ २५४॥ अनादिचयसंवृद्धो महामोहो हृदि स्थितः । सम्यग्योगेन यैर्वान्तस्तेषामूध्वं विशुद्धयति ।। २५५ ।।
-२५५ ]
२३५
मान:
प्राह-- क्षीरेत्यादि । अभेदरूपत: अभेदरूपेण । भेदवत्सु आत्मनो व्यतिरिक्तेषु । अलम् अत्यर्थेन । बाहयवस्तुषु पुत्रकलत्रादिषु ॥ २५३ ॥ शरीरसंयोगादात्मनो यज्ज्ञानं तद्दर्शयन्नाह - तप्त इत्यादि, जलं वा जलमिव । शीतीभूताः सुखीभूताः । सुखैषिणः ( शिवैषिणः) मोक्षार्थिनः मुनयः ।। २५४ ।। शरीरादौ ममेदभावकारणस्य महामोहस्य त्यागोपायमाह-- अनादीत्यादि । अनादिश्चासो चयश्च उपचयः तेन संवृद्धः पुष्टः । महामोह: हैं तब भला प्रत्यक्षमें भिन्न दिखनेवाले स्त्री- पुत्रादिसे उनका अनुराग कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता । इस कारण उनकी वह आशा - लता मुरझाकर सूख जाती है ।। २५२ ।। जब कि दूध और पानी के समान अभेदस्वरूपसे रहनेवाले शरीर और शरीरधारी (आत्मा) इन दोनोंमें ही अत्यन्त भेद है तब भिन्न बाह्य वस्तुओंकी - स्त्री, पुत्र, मित्र एवं धन-सम्पत्ति आदिकीतो बात ही क्या है; बताओ । अर्थात् वे तो भिन्न हैं ही ।। २५३ ।। जिस प्रकार अग्निके संयोगसे जल संतप्त होता है उसी प्रकार मैं शरीरके संयोगसे संतप्त हुआ हूं- दुखी हुआ हूं। इसी कारण मोक्षकी अभिलाषा करनेवाले भव्य जीव इस शरीरको छोड करके सुखी हुए हैं ।। २५४ ।। हृदयमें स्थित जो महान् मोह अनादि कालसे समान वृद्धि के द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है उसको जिन महापुरुषोंने समीचीन समाधिके द्वारा वान्त कर दिया है - नष्ट कर दिया है- उनका आगेका भव विशुद्ध होता है ॥ विशेषार्थ- किसी व्यक्तिके उदरमें यदि बहुत कालसे संचित होकर मलकी वृद्धि हो जाती है तो उसका शरीर अस्वस्थ हो जाता है । ऐसी अवस्थामें यदि वह बुद्धिमान् है तो योग्य औषधिके द्वारा वमन विरेचन आदि करके उस संचित मलको नष्ट कर देता है । इससे वह स्वस्थ हो जाता है और उसका आगेका समय भी स्वस्थताके साथ आनन्दपूर्वक