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स्वोशरीरस्वरूपम्
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कष्टका अनुभव करते हैं, किन्तु उसमें क्रीडा करते हुए वे कष्टके स्थान में आनन्दका अनुभव करते हैं । वह योनिस्थान क्या है - जिस प्रकार शत्रु बाण आदि किसी शस्त्र के प्रहारसे घावको उत्पन्न करता है उसी प्रकार कामरूप शत्रुने अपने बाणको मारकर मानो वह घाव ही उत्पन्न कर दिया है फिर भी खुद इस बातका है कि जो लोग शरीरमें थोडा-सा भी घाव उत्पन्न होने पर दुःखी होते हैं वे ही इस घावको आनंददायक मानते हैंइसमें उन्हें किसी प्रकार दुःख नहीं होता । जिस प्रकार किसी ऊंचे विषम (ऊंचा-नीचा) पर्वत के उपान्तमें गहरा गड्ढा हो और वह भी घास एवं पत्तों आदिसे आच्छादित हो तो उसके ऊपर चढनेवाला मनुष्य उक्त गड्ढेको न देख सकने के कारण उसमें गिर जाता है और वहीं पर मरणको प्राप्त होता है । ठीक उसी प्रकार से वह योनिस्थान भी मोझरून उन्नत पर्वतपर चढ़नेवालोंके लिये उस पर्वत के गड्ढेके ही समान है जिसमें कि पडकर वे फिर निकल नहीं पाते - कामासक्त होकर विषयोंमें रमते हुए दुर्गतिके पात्र बनते हैं । इसके अतिरिक्त जिस प्रकार सर्पकी बांवी प्राणीको दुःखदायक होती है उसी प्रकार स्त्रीका वह योनिस्थान भी कामी जनोंके लिये दुःखका देनेवाला है। इसका कारण यह है जिस प्रकार बांवी में हाथ डालनेवाले प्राणियोंको उसके भीतर स्थित सर्प काट लेता है, जिससे कि वह मरणको प्राप्त करता है, उसी प्रकार उस योनिस्थान में क्रीडा करनेवालोंको वह कामरूप सर्प काट लेता है, जिससे कि वे भी हिताहितके विवेकसे रहित होकर विषयों में आसक्त होते हुए मरणको प्राप्त होते हैं- अपनेको दुःख में डालते हैं । इसलिये जो पधिक सावधान होते हैं वे चूंकि मार्गको भले प्रकार देख-भाल करके ही पर्वतके ऊपर चढते हैं इसीलिये जैसे वे अभीष्ट स्थान में चा पहुंचते हैं वैसे ही जो विवेकी जीव हैं वे भी उस गड्ढेसे बचकर विषयभोगसे रहित होकर अपने अभीष्ट मोक्षरूप पर्वतपर चढ जाते हैं ।। १३३ || दूसरे मनुष्य तपके