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मायातो हानिप्रदर्शनम्
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हजार हाथियों और इतने ही घोडोंको मारकर उनके शवोसे पृथिवीको व्याप्त कर दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्यको क्षत्रियोंसे रहित पृथिवीको करते हुए देखकर अग्निको आगे करते हुए विश्वमित्र,जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम,वसिष्ठ कश्यप और अत्रि आदि ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक में ले जानेकी इच्छासे वहां शीघ्र ही आ पहुंचे। वे सब उनसे बोले कि हे द्रोग ! तुमने अधर्मसे युद्ध किया है, अब तुम्हारी मृत्यु निकट है, अतएव तुम युद्धमें शस्त्रको छोडकर यहां स्थित हम लोगोंकी ओर देखो । अब इसके पश्चात् तुम्हें ऐसा अतिशय क्रूर कार्य करना योग्य नहीं है । तुम वेदवेदांगके वेत्ता और सत्य धर्म में लवलीन हो । इसलिये और विशेषकर ब्राह्मण होनेसे तुम्हें यह कृत्य सोभा नहीं देता। तुमने शस्त्रसे अनभिज्ञ मनुष्योंको ब्रह्मास्त्रसे दग्ध क्रिया है । हे विप्र ! यह जो तुमने दुष्कृत्य किया है वह योग्य नहीं है । लब तुम युद्ध में आयुधको छोड दो। इस प्रकार उन महर्षियोंके वचनोंको सुनकर तथा भीमसेनके वाक्य (अश्वस्थामा हतः) का स्मरण करके द्रोणाचार्य युद्धको ओरसे उदास हो गये। तब उन्होंने भीमके वचनमें सन्दिग्ध होकर अश्वत्थामाके मरने वन मरने बावत युधिष्ठिरसे पूछा । कारण यह है कि उन्हें यह दृढ विश्वास था युधिष्ठिर कभी असत्य नहीं बोलेगा । इधर कृष्णको जब यह ज्ञात हुआ कि द्रोणाचार्य पृथिवीको पाण्डवोंसे रहित कर देना चाहते हैं तर वे दुखित होकर धर्मराज (युधिष्ठिर) से बोले कि यदि द्रोणाचार्य क्रोधित होकर आधे दिन भो युद्ध करते हैं तो मैं सच कहता हूं कि तुम्हारी सब सेना नष्ट हो जावेगी। इसलिये आप हम लोगोंकी रक्षा करें । इस समय सत्यकी अपेक्षा असत्य बोलना कहीं अधिक प्रशंसनीय होगा । जो जीवितके लिये असत्य बोलता है वह असत्यजनित पापसे लिप्त नहीं होता है । कृष्ण और युधिष्ठिरके इस उपर्युक्त वार्तालापके समय भीमसेन युधिष्ठिरसे बोला कि हे महाराज ! द्रोणा. चार्यके बधके उपायको सुनकर मैने मालव इन्द्रवर्माके अश्वत्थामा