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अनुरञ्जित करना है। भरत के अनुसार 'विभावानुभावव्यभिचारियोगाद्रसनिष्पतिः' अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रसार्णवसुधाकर में विभाव, अनुभाव और व्याभिचारिभाव- इन तीनों के अभिधायक तत्त्वों का विस्तृत
और साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है। इस सन्दर्भ में पूर्ववर्ती आचार्यों के परस्पर विरोधी मान्यताओं में औचित्यपूर्ण मान्यता को निःसङ्कोच स्वीकार किया गया है तथा असङ्गत मतों की समालोचना करते हुए उन्हें अस्वीकार कर दिया गया है।
रसार्णवसुधाकर में नाट्यकला के रचनात्मक पक्ष का जितना विस्तृत विवेचन है उतना प्रायोगिक पक्ष का नहीं। प्रायोगिक पक्ष के अन्तर्गत अभिनय, संवाद, वेशभूषा तथा रङ्गमञ्च-सज्जा इत्यादि विवेचनीय तथ्य हैं। इनके विषय में रसार्णवसुधाकर में यत्र-तत्र नगण्य सङ्केत मात्र प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इसमें नाट्यकला के प्रयोगात्मक पक्ष का प्रायः अभाव है।
___शिङ्गभूपाल द्वारा दिया गया नाट्यकला का सन्तुलित, विस्तृत, तात्त्विक और स्पष्ट निरूपण अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।
इस विवेचन से शिङ्गभूपाल की क्रमबद्ध और सूक्ष्म विवेचन करने की अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है।समालोचनात्मक स्थलों पर पद्य और गद्य दोनों विधाओं का प्रयोग करके प्रतिपाद्य विषय को स्पष्ट बना दिया गया है। यह ग्रन्थ परवर्ती नाट्यशास्त्रकारों
और नाट्यकारों के लिए प्रेरणादायक है। इस प्रकार नाट्यविषयक सभी तथ्यों के सर्वाङ्गीण विवेचन द्वारा भारतीय नाट्यकला के अभ्युत्थान और प्रतिष्ठापन में शिङ्गभूपाल का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
नाट्यपरम्परा और शिङ्गभूपाल- विषय की बहुलता और बोधगम्य शैली के कारण शिङ्गभूपाल का रसार्णवसुधाकर नाट्यशास्त्र के क्षेत्र में समादर की दृष्टि से देखा जाता है। यद्यपि महत्त्व की दृष्टि से धनञ्जय का दशरूपक अधिक ख्यातिलब्ध है फिर भी शिङ्गभूपाल का रसार्णवसुधाकर विषय की व्यापकता, सूक्ष्मता, और गम्भीरता के कारण दशरूपक से बढ़ चढ़ कर है। शिङ्गभूपाल ने अपने पूर्ववर्ती नाट्यकला से सम्बन्धित ग्रन्थों का समालोचन करके उसमें से निकले घृत को अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है।। उन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित समुचित तथ्यों का समर्थन भी किया है किन्तु कसौटी पर खरे न उतरने वाले अनुचित तथ्यों की प्रसङ्गवशात् स्थल-स्थल पर समालोचना करके उनका परिमार्जन भी किया है। इन्हीं कारणों से शिङ्गभूपाल नाट्यशास्त्रीय आचार्यों के मध्य में मणिमुकुट के समान देदीप्यमान हैं। शिङ्गभूपाल मौलिक-प्रवृत्ति के धनी है। उनकी समालोचना-शक्ति अत्यन्त सूक्ष्म तथा प्रबल है। अतः वे विना पूर्वाग्रह के स्वतन्त्र और तटस्थ समीक्षक हैं।