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चेष्टाओं का सोहादाहरण निरूपण किया गया है। तदनन्तर रति, हास, उत्साह, विस्मय, क्रोध, शोक, जुगुप्सा और भय-इन आठ स्थायीभावों का लक्षण, भेद तथा उदाहरण के सहित विस्तृत विवेचन हुआ है। भोज के द्वारा बतलाए गये गर्व, स्नेह धृति और मति स्थायिभावों का खण्डन करके उनका इन्हीं आठ स्थायिभावों में अन्तर्भाव स्थापित करके आठ ही स्थायिभावों का समर्थन किया गया है। इन्हीं आठ स्थायिभावों से निष्पन्न आठ रसों का लक्षण और भेद सोदाहरण स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसङ्ग में परस्पर विरोधी और मित्रभाव से रहने वाले रसों तथा रसाभास का भी निरूपण किया गया है।
तृतीय विलास में नाट्य शब्द की व्युत्पत्ति, नाट्यों के दश भेद, इतिवृत्त (कथावस्तु) और उसके भेद, मुख प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण-इन पाँच सन्धियों को लक्षण तथा उदाहरण-सहित प्रस्तुत किया गया है।इसके अतिरिक्त सन्ध्यङ्गों और सन्ध्यन्तरों का विस्तृत विवेचन हुआ है। तत्पश्चात् नान्दी, सूत्रधार, इत्यादि नाट्यशास्त्रीय पारिभाषिक शब्दों का निरूपण हुआ है। नाटिका का नाटक और प्रकरण में अन्तर्भाव किया गया है। सबसे अन्त में विभिन्न पात्रों द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले सम्बोधन पदों का निर्देश किया गया है।
इस प्रकार रसार्णवसुधाकर में नाट्यशास्त्र-विषयक तथ्यों का अतिसूक्ष्म और सविस्तार निरूपण किया गया है। नाट्यशास्त्र-विषयक ऐसा कोई भी तथ्य नहीं है जो रसार्णव-सुधाकर में निरूपित न हुआ हो। इसमें ग्रन्थकार ने सभी विषयों का साङ्गोपाङ्ग सोदाहरण विवेचन किया है।
रसार्णवसुधाकर और नाट्यकला- रसार्णवसुधाकर में संस्कृतनाट्यों से सम्बन्धित नाट्यकला-विषयक सम्पूर्ण पक्षों का परिनिष्ठित, क्रमबद्ध और साङ्गोपाङ्ग विस्तृत निरूपण किया गया है। प्रचीन आचार्यों ने नाट्यविषयक तीन पक्षों-रचनात्मकता, रसात्मकता तथा प्रायोगिकता का प्रतिपादन किया है। रसार्णवसुधाकर में रचनात्मक-स्वरूप के अन्तर्गत नाट्य के दश भेदों का स्वरूप, कथावस्तु और उनके भेद-प्रभेदों, सन्धियों, सन्ध्यङ्गों अर्थप्रकृतियों, छत्तीस भूषणों, इक्कीस सन्ध्यन्तरों का विस्तृत तथा शास्त्रीय निरूपण किया गया है। प्रतिपादित लक्षणों के स्पष्टीकरण के लिए ग्रन्थकार ने प्रचुरमात्रा में उदाहरणों को प्रस्तुत किया है जब कि अन्य नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थकर्ता एक दो उदाहरण को देकर ही सन्तुष्ट हो गये हैं। रसाणव-सुधाकर में यद्यपि पूर्ववर्ती परम्परा का निर्वाह किया गया है फिर भी उसमें समुचित परिवर्तन, परिवर्धन और मौलिकता का सनिवेश है।
नाट्य की परिकल्पना रसोद्बोधन के लिए की गयी है। इस प्रकार रस ही नाट्य का जीवनाधायक तत्त्व आत्मा है। वस्तुतः नाट्य का परमलक्ष्य दर्शकों तथा पाठकों को