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है। आज तक इस ग्रन्थ के समान किसी अन्य ग्रन्थ का प्रणयन नहीं हो सका है। विषयवस्तु की विस्तृतता के कारण यह उपजीव्य-ग्रन्थ सङ्गीतज्ञों के लिए दुरूह है। अतः इसको सरल बनाने के लिए शिङ्गभूपाल ने सङ्गीतशास्त्र का सम्यक् अध्ययन करके इस ग्रन्थ पर सङ्गीतसुधाकर नामक टीका लिखा है। इनकी यह टीका सङ्गीतज्ञों को सङ्गीतरत्नाकर को समझने के लिए परमोपयोगी तथा प्रामाणिक है।
4. कुवलयावली नाटिका- शिङ्गभूपाल कृत चार अङ्कों में विभक्त यह एक लघु नाटिका है। यह त्रिवेन्द्रम संस्कृत सिरीज से 1941 में प्रकाशित भी हो चुकी है। इसके प्रारम्भिक परिचय-वर्णन में ही इसे शिङ्गभूपाल की रचना माना गया हैश्रीमता शिङ्गभूपालेन प्रणीताम्...(कुवलयावली 1/11)। इस शिङ्गभूपाल की खड्गनारायण उपाधि थी- खण्ड्गनारायणेन (कुवलयावली 1/8)। इसके कतिपय श्लोकों को शिङ्गभूपाल ने रसार्णवसुधाकर में उदाहरणों के रूप में उद्धृत किया है और उन्हें अपने द्वारा कृत कहा है। इसका 'रत्नपञ्चालिका' यह दूसरा नाम भी उपलब्ध होता है। सहृदयों के लिए शिङ्गभूपालकृत नाटकीय उत्कर्षों से युक्त और रसानन्दप्रवाहिणी यह नाटिका हृदयसंवेद्य है
पूर्णेयं शिङ्गभूपेन कविता मधुजल्पितैः । । रत्नपञ्चालिका नाम नाटिका रसपेटिका ॥ (कुवलयावली की पुष्पिका)
कुवलयावली का कथानक शिङ्गभूपाल की कल्पना की उपज है। नायक कृष्ण तो प्रधान पुरुष हैं किन्तु कुवलयावली कल्पित नायिका है। स्वयं कन्या का रूप धारण करने वाली पृथ्वी कन्या रूप में नारद द्वारा रानी रुक्मिणी के पास भेज दी जाती है। नारद द्वारा दी गयी मुद्रा के प्रभाव से वह स्त्रियों को तो स्त्री और पुरुषों को रत्न की पुतली प्रतीत होती है। एक दिन वह अपनी सखी चन्दलेखा के साथ राजोद्यान में गयी और वहाँ साम को कालयवन को परास्त करके लौटे हुए कृष्ण को देख लिया। कृष्ण ने भी चन्द्रलेखा से बात करते हुए रत्न की पुतली के समान प्रतीत होने वाली उस कन्या को देख लिया । उसी समय संयोगात् उद्यान में क्रीड़ा करती हुई उसकी नारदप्रदत्त अझूठी गिर गयी। अङ्गूठी के गिरने से उसका प्रभाव समाप्त हो गया। प्रभाव-मुक्त हो जाने के कारण उसका नारीसौन्दर्य पुरुषों के लिए दर्शनीय हो गया। उसके नारी-सौन्दर्य को देख कर कृष्ण का मन उस कन्या पर आकृष्ट हो गया और दोनों सखियाँ राजभवन को चली गयीं। प्रेमविह्वल कृष्ण उसकी गिरी हुई अगुङ्गी को पा गये और उस पर उत्कीर्ण लेख से उन्हें पूरा रहस्य ज्ञात हो गया। पुनः उसी समय जब वह कुवलयावली नामक कन्या अङ्गुठी को खोजते हुए उद्यान में आयी तब कृष्ण ने स्वयं उसकी अङ्गुठी को उस अङ्गुली में पहना दिया। उसी