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विषयक तथ्यों का अनुशीलन अपरिहार्य है। इन्हीं के आधार पर शिङ्गभूपाल का कालनिर्धारण करना उपयुक्त है।
रसार्णवसुधाकर में भोतकृत शृङ्गारप्रकाश और शारदातनय कृत भाव-प्रकाश के तथ्यों को प्रमुखता से उद्धृत करके उनकी समालोचना की गयी है। इसके अतिरिक्त नाट्यशास्त्र के प्रणेता के रूप में आचार्य भरत को स्मरण किया गया है। रुद्रट, शार्ङ्गदेव, दशरूपककार धनञ्जय के भी मतों को आवश्यकतानुसार यथास्थान उद्धृत किया गया है। इन आचार्यों में शारदातनय सबसे परवर्ती आचार्य हैं। विद्वानों ने इनका समय 1100 से 1300 ईसवीय के मध्य में माना है। इस प्रकार शिङ्गभूपाल 1300 ईसवीय से बाद के आचार्य निर्धारित होते है।
शिङ्गभूपाल के नाट्यविषयक ग्रन्थ रसार्णवसुधाकर ने परवर्ती आचार्यों को विशेष रूप से प्रभावित किया जिनमें आचार्य विश्वेश्वर कविचन्द्र तथा आचार्य रूपगोस्वामी प्रमुख हैं।आचार्य कविचन्द्र शिङ्गभूपाल की राजसभा के सम्मानित पण्डित थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ चमत्कारचन्द्रिका में शिङ्गभूपाल द्वारा विरचित कतिपय श्लोकों को भी सङ्कलित किया है। वस्तुतः चमत्कारचन्द्रिका में कवि ने अपने आश्रयदाता शिङ्गभूपाल का यशोगान ही किया है। विद्वानों ने आचार्य विश्वेश्वर कविचन्द्र का काल 1300 से 1400 ईसवीय के मध्य माना है। अत एव शिङ्गभूपाल का भी समकालिक होने के कारण यही काल निर्धारित होता है।
नाटकचन्द्रिका रूपगोस्वामी ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही भरत के नाट्यशास्त्र और शिङ्गभूपाल के रसार्णवसुधाकर के अनुशीलन करने की बात को स्वीकार किया है।
वीक्ष्य भरतमुनिशास्त्रं रसपूर्वसुधाकरम् । लक्षणमतिसक्षेपाद्विलिख्यते नाटकस्येदम् ।। (नाटकचन्द्रिका,1)
रूपगोस्वामी का समय 1490 से 1553 ईसवीय के मध्य निर्धारित किया गया है। इस प्रकार शिङ्गभूपाल का इनसे पूर्ववर्ती होना स्वतः सिद्ध हो जाता है।
टीकाकार मल्लिनाथ ने कुमारसम्भव 7.91 की टीका में रसार्णवसुधाकर को उद्धृत करते हुए कहा है
तदुक्तं भूपालेनकौशिकी स्यात्तु शृङ्गारे रसे वीरे तु सात्त्वती । रौद्रवीभत्सयोवृत्तिर्नियतारभटी पुनः ॥ शृङ्गारादिस्वभावैष रसेष्विष्टा तु भारती ॥ रसार्णव 1/288 इसी प्रकार रघुवंश 6/12 की टीका में भी रसार्णवसुधाकर को उद्धृत करते हुए