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अर्थात्- (अन्य स्त्री के साथ सम्भोग न करने के कारण) अपराध-रहित प्रियतम के थोड़ा सा देर कर देने पर उत्सुक प्रियतमा मधुर चन्दन को अथवा अशोक वृक्ष को देखने में असमर्थ हो जाती है। हाथों से निकल कर गिरे हुए कङ्गन को भी नहीं जान पाती। कोयल की कूँजन को सुनकर आँसू बहाने लगती है और कांपने लगती है।।।
दूसरी नायिका के साथ समागम का अपराध करके आने वाले प्रियतम को वक्रोक्ति द्वारा कोई मुग्धा प्रियतमा किस चातुरी से उलाहना देती है- यह शिङ्गभूपाल के इस श्लोक में बडी रसिकतापूर्वक चित्रित किया गया है
को दोषो मणिमालिका यदि भवेत्कण्ठे न किं शङ्करो धत्ते भूषणर्धचन्द्रममलं चन्द्रे न किं कालिमा। तत्साध्वेव कृतं कृतं भणितिभि वापराद्धं त्वया भाग्यं द्रष्टुनीशयैव भवतः कान्तापराद्धं मया ॥
अर्थात्- यदि मणिमालिका (मणिनिर्मित माला) गले में नही है तो इसमे दोष ही क्या है (अर्थात् कोई दोष नहीं है) क्या शङ्कर जी निर्मल अर्धचन्द्र को धारण नहीं करते (अर्थात् अवश्य धारण करते हैं।) और उस चन्द्रमा में क्या कालिमा. (दाग) नहीं है (अर्थात् अवश्य है) तो आपने (परनायिका से सम्भोग करके) अच्छा ही किया है, अच्छा ही किया है।(यह तो अपराध मेरा है कि) मै आप के इस सौभाग्य को देखने के लिए सक्षम नहीं हूँ- इस प्रकार (वक्रीक्ति से) कहने वाली नायिका के प्रति मैंने (परस्त्रीगमन का) अपराध किया है।
किसी प्रियतम द्वारा सङ्केत देकर सङ्केत-स्थल पर न पहुंचने के कारण विप्रलब्धा नायिका की मनोदशा का स्वाभाविक चित्रण भी दर्शनीय है
चन्दबिम्बमुदयादिमागतं पश्य तेन सखि! वञ्चिता वयम् । अत्र किं निजगृहं नयस्व मां तत्र वा किमिति विव्यथे वधूः॥
अर्थात्- रे सखी! चन्द्रबिम्ब उदयाचल को आ गया अर्थात् चन्द्रमा उदित होने वाला है और (संङ्केत करके इस स्थान पर न आने वाले नायक ने) हम लोगों को धोखा दिया है (अब) यहाँ रहने से क्या लाभ? मुझे अपने घर ले चलो अथवा वहाँ भी चलने से क्या लाभ? इस प्रकार वधू व्यथित हो गयी।
सम्पूर्णयौवना नायिका के अङ्गों को निर्माण करने वाले ब्रह्मा ने तो उसमें सुकृत को ही उडेल दिया है
उत्तुङ्गौ कुचकुम्भौ रम्भास्तम्भोपमानमुरुयुगम् । तरले दृशौ च तस्याः सृजता धात्रा किमाहितं सुकृतम् ॥