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द्वारा ऐसा सजाया है कि सरस सहृदय उसमें बार-बार गोता लगाते हुए उसी में डूबा रहना चाहता है। नववय वाली मुग्धा नायिका का प्रतीयमान अर्थों से सुसज्जित चित्रण इनके सौन्दर्याभिभूति को अभिव्यञ्जित करता है
उल्लोलितं हिमकरे निविडान्धकारमुत्तेजितं विषमसायकबाणयुग्मम् । उन्मज्जितं कनककोरकयुग्ममस्यामुल्लासिता च गगने तनुवीचिरेखा ॥
अर्थात् इस नायिका के चन्द्रमा (मुख) पर चञ्चल घना अन्धकार (काला बाल) लहरा रहा है और कठिन पंखयुक्त दो बाण (दोनों नयन) तीखे हो गये हैं। सुवर्ण के समान दो कलियाँ (गौर स्तन) बाहर निकल गये हैं तथा आकाश (पेट) पर अत्यन्त पतली तरङ्गों (त्रिवली) की रेखा (पंक्ति) हो गयी है।
शिङ्गभूपाल नारियों के नखशिख-चित्रण तथा उनके मनोभावों के कुशल पारखी है। विप्रलम्भ शृङ्गार के प्रसङ्ग में उनके द्वारा दिये गये स्वनिर्मित उदाहरण में विरहिणी नायिका की मनोव्यथा का अत्यन्त मार्मिक और स्वाभाविक चित्रण हुआ है
दूरे तिष्ठति सोऽधुना प्रियतमः प्राप्तो वसन्तोत्सवः कष्टं कोकिलकूजितानि सहसा जातानि दम्भोलयः । अङ्गान्यवश्यानि याचिकतां .यातीव मे चेतना हा कष्टं मम दुष्कृतस्य महिमा चन्दोऽपि चण्डायते ॥
अर्थात् (विरहिणी नायिका कहती है कि) वह (मेरा) प्रियतम (इस समय मुझसे) दूर (देश) में रह रहा है और वसन्तोत्सव आ गया। यह कष्ट (की बात है) कि (इस समय होने वाली) कोयल की कूजन मेरे लिए वन (के समान) हो गयी है। मेरे अङ्ग (मेरे) वश में नहीं है। मेरी चेतना मानो याचकता को प्राप्त हो रही है (अर्थात् याचना करने वाली हो गयी है)। मेरे दुर्भाग्य की ही यह महिमा है कि (शीतल) चन्द्रमा भी मेरे लिए प्रचण्ड ताप उगल रहा है-यह कष्ट का विषय है।
प्रियतम के थोड़ा सा आने में देर करने पर प्रियतमा की मानसिक दशा का ऐसा सूक्ष्म और स्वाभाविक चित्रण शिङ्गभूपाल की सरसता और रसिकता का स्पष्ट प्रमाण है
चिरयति मनाक कान्ते कान्ता निरागसि सोत्सुका मधु मलयजं माकन्दं वा निरीक्षितुमक्षमा । गलितपतितं नो जानीते करादपि कङ्कणं परभृतरुतं श्रुत्वा बाष्पं विमुञ्चति वेपते ॥