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इनके तेजसम्पन्न व्यक्तित्व, ओजस्विता, पराक्रम और यशस्विता के कारण शत्रु सर्वदा नतमस्तक रहते थे। कलिङ्गराज गजपति ने तो इनसे पराजित होकर अपने विनाश से सशङ्कित होने के कारण इनके साथ अपनी पुत्री का विवाह तक कर दिया
शिङ्गक्षोणिभुजः कलिङ्गकुभुजे क्रुद्धस्य तस्मिन्क्षणे दत्ता तत्तनयामुपायनतया लोकोत्तमां पश्यतः । व्यावृत्ता धनुषः कटाक्षसरणिस्तद्भूतलालोकिनी दृक्कोणं परिहत्य रागमहिमा चित्ते परं चेष्टते ।
(चमत्कारचन्द्रिका 5.16) यद्यपि इनके राज्य की सीमा अत्यधिक विस्तृत थी तथापि इनके अनुशासन की कला से प्रजा की सुखसमृद्धि, जनहितता तथा प्रजारञ्जकता में कोई व्यवधान नहीं था। उनके अलौकिक गुण और अनुपम गौरव के कारण उनकी उज्ज्वलकीर्ति दिगन्तरालों में पूर्णरूपेण चमकती थी
श्रीशिङ्गधरणीश! तव कीर्तिपरम्परा स्पर्धते चन्द्रिकापूरैर्दशां बलवदाश्रयात् (चमत्कारचन्द्रिका 8/8) इत्यादि।
शिङ्गभूपाल प्रजावत्सल, दिग्विजयी, प्रतापी, न्यायप्रिय, उदार, दानी, यशस्वी,और शरणागत वत्सल राजा थे। इसके साथ ही विद्वानों, कवियों, कलाकारों के आश्रयदाता तथा स्वयं भी कलाप्रिय, कला के ज्ञाता, कवि और विद्वान् थे। कवि विश्वेश्वर कविचन्द्र ने चमत्कारचन्द्रिका में अपने आश्रयदाता के विपुलगुणों से प्रभावित होकर अनेक प्रशंसात्मक श्लोकों द्वारा अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया है। ___ शिङ्गभूपाल का कवित्त्व- एक सफल राजा होने के साथ-साथ शिङ्गभूपाल का सरस्वती पर भी पूर्ण अधिकार था। वे व्याकरण साहित्य, अलङ्कार और नाट्यशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ-साथ रसिक, सरस और प्रौढ़ कवि तथा निष्पक्ष समालोचक भी थे। इसी लिए चमत्कार-चन्द्रिका में कविचन्द्र ने इन्हें 'सर्वज्ञ' उपाधि से विभूषित किया है- विद्यादैवत तात तावक (?) गुरौ सर्वज्ञचूडामणौ (4.23)। सङ्गीतरत्नाकर की टीका में भी इन्हें इसी उपाधि से विभूषित किया गया है- सम्यग्व्याख्याकुशलः सर्वज्ञः शिङ्गभूप एवैकः (1/11 की टीका)। . नारीचित्रण- प्रकृति और नारी के सौन्दर्यात्मक स्वरूप का सजीव चित्रण करना कवियों का प्रमुख विषय रहा है। रसिक कवि शिङ्गभूपाल भी इससे पूर्णतः प्रभावित थे। इनके प्रकृति-परक वर्णनों में निरीक्षण की नवीनता, सहृदय की सरसता तथा कल्पना की कमनीयता दृष्टिगोचर होती है। नारी-सौन्दर्य को तो अपने असाधारण रचना-कौशल