________________
मानाबादEEP
चंचल और अतृप्त है। इन्द्रियजन्य भोगों की प्रबल लालसा से हम मात्र - नामधारी जैन होकर रह गये। जैनों के आचरण से हीन होते जा रहे हैं।
पाप करने में भी भीरूता के भाव नष्ट होते जा रहे हैं। सत्य, संयम और सदाचरण की प्रतिष्ठा तिरोहित होती जा रही है। देह अन्न का कीट बन चुका है, इस वातावरण में भी 108 पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी छाणी
जैसे प्रखर तपस्वियों की पवित्र दिगम्बर निर्दोष साधना आश्चर्य का विषय 5 रही है। महाराज श्री के जीवन से जैन धर्म की महान् प्रभावना हुई। जन-जन
का महान् उपकार हुआ है। आज जो कुछ भी यदा-कदा सामाजिक विकास और धार्मिक वातावरण दिखता है, इन्हीं संतों की कृपा का फल है, अगर ये महान सन्मार्ग दर्शक, रत्नत्रयी, प्राणी मात्र के हितैषी, परोपकारी न होते तो राष्ट्र, समाज और धर्म का और पतन हो जाता।
मैं परम पूज्य आ. शान्तिसागर जी छाणी के चरणों में हार्दिक श्रद्धाञ्जलि समर्पित करता हूँ।
लखनादौन (सिवनी)
आध्यात्मप्रेमी पं. यतीन्द्र कुमार
पावन स्मृति या पावन श्रद्धाञ्जलि इस क्षण भंगुर संसार में कौन जन्म नहीं लेता अथवा कौन मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। जन्म-मरण तो संसार में लगा हआ है। किन्तु जिनके उत्पन्न होने से वंश तथा समाज उन्नति को प्राप्त होता है, तथा जो विषय भोगों से विरक्त होकर रत्नत्रय से विभूषित होते हैं, उनका इस संसार में जन्म लेना सार्थक होता है। इसी प्रकार स्व. परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर
(छाणी) जी महाराज ने संसार भोगों से विरक्त होकर रत्नत्रय से विभूषित 51 दिगम्बर दीक्षा को धारण कर अपनी आत्मा सिद्धि के लक्ष्य को प्राप्त किया।
मुझे स्मरण है कि मैं माता जी के साथ सन 1958 या 1959 में कोडरमा (बिहार) पंचकल्याणक में गया था। माता जी सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारिणी थी। अपने स्वधन से चौका लगाती थीं। कोडरमा पंचाल्याणक में स्व. पू. श्री 108 मल्लिसागर जी विराजमान थे, जो स्व. आचार्य श्री शान्तिसागर छाणी
के परम शिष्य थे। श्री मल्लिसागर महाराज श्री के पास स्व. आचार्य श्री पप्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर गणी स्मृति-ग्रन्थ
54
454545454545454545454545454545