Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 546
________________ फफफफफफफफफफ !!!! अर्थात् वह चारित्र सकल, विकल चारित्र के भेद से दो प्रकार का है। सकल चारित्र समस्त परिग्रहों से रहित मुनियों के और विकल चारित्र या एक देश चारित्र परिग्रह युक्त गृहस्थों के होता है। श्रावक के 12 व्रतों का जीवन और जगत की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। वे व्रत हैं-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। यदि इन व्रतों का हम जीवन में सही ढंग से पालन करें तो बहुत ही सुखद आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। जैनाचार्यों ने श्रावक के पांच अणुव्रतों तथा उनके पालनकर्ताओं को जिन दोषों से सावधान रहने हेतु प्रेरित किया है उनको यदि व्यक्ति जीवन में स्थान दें तो आज अनेकानेक राष्ट्रीय समस्याओं का स्वतः ही निराकरण हो सकता है। संक्षिप्त रूप से पञ्च अणुव्रतों की विश्व समुदाय के लिए क्या उपादेयता है उसका वर्णन निम्न प्रकार से है 1. अहिंसाणुव्रत : जो तीनों योगों के कृत, कारित, अनुमोदना रूप संकल्प से त्रस जीवों को नहीं मारता है उसे हिंसादि पापों के त्याग रूप व्रत के विचार करने में समर्थ मनुष्य स्थूल हिंसा का त्याग अर्थात् अहिंसाणुव्रत कहते हैं। संकल्प शक्ति का जीवन में बहुत महत्त्व है क्योंकि इस आधार पर ही हम अच्छे और बुरे कार्य में संलग्न होते हैं। जिस क्षण जीव ने मन में विचार किया उस समय से ही उस कार्य को करने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। कार्य का जैसा उद्देश्य होता है उसके लिए अनुकूल साधनों को जुटाता है। अच्छे कार्यों के संकल्प करने वाले व्यक्ति की चित्तवृत्ति में निरन्तर सुख, शान्ति की प्राप्ति होती रहती है तथा बुरे या पापमय कार्यों के बारे में सोच रहे व्यक्ति के मन में निरन्तर अशान्ति या उद्विग्नता बनी रहती है। इस कारण से संकल्प का शुभ होना आवश्यक है। हिंसा चार प्रकार की मानी गयी है - संकल्पी, आरम्भी, उद्यमी और विरोधी। इन चार प्रकार की हिंसाओं में अहिंसाणुव्रती जीव मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग कर पाता है, शेष तीन हिंसाओं का नहीं और वह भी मात्र त्रस जीवों की हिंसा का मनुष्यों के प्रति तो जैनधर्म में अहिंसा का वर्णन किया गया है ही, पशु-पक्षियों के प्रति भी करुणाभाव रखने के प्रति सजग किया गया है। अहिंसाणुव्रत के अतिचारों का वर्णन करते हुए लिखा है कि छेदना, बांधना, पीड़ा देना, अधिक भार लादना और आहार का रोकना अथवा आहार बचाकर रखना ये पांच अतिचार हैं। यहाँ पर नीति के उस श्लोक के साथ विशेष संबंध जुड़ा हुआ है। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" अर्थात् अपने लिए जो प्रतिकूल प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 500 5

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