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समाज-विकास में महिलाओं की भूमिका
व्यक्ति बूंद है तो समाज समुद्र । बूंद-बूंद के मिलने से जैसे सागर TE बनता है, वैसे ही व्यक्ति-व्यक्ति के मिलने से समाज की रचना होती है। इस LE ॥ रचना-प्रक्रिया में बंद अपना अस्तित्व बनाये रखते हए भी समद्र के लिए सब
कुछ समर्पित कर देती है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता का अहसास करते हुए भी समाज-हित के लिये समर्पित होता है। व्यक्ति-व्यक्ति परस्पर मिलकर जब यह संकल्प करें कि हम अपनी-अपनी स्वतंत्रता बनाये रखकर भी सबकी समानता और कल्याण के कार्य करेंगे, तभी समाज अस्तित्व में आयेगा।
समाज का विकास प्रत्येक व्यक्ति के विकास पर निर्भर है। विकास के दो पक्ष हैं। एक भौतिक पक्ष और दूसरा सांस्कृतिक या आध्यात्मिक पक्ष । TE भौतिक विकास में विज्ञान और उससे सम्बद्ध तकनीक व उपकरण बड़ी मदद । करते हैं। भौतिक विकास से शारीरिक आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं, सुख-सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं, पर मात्र इससे सामाजिक सौहार्द और IT भावात्मक विकास का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। भावात्मक विकास । का आधार मानसिक संयम और आत्म जागति है। पशु और मानव में जो
मूल अन्तर है वह भावात्मक विकास और मानसिक संयम का ही है। पशुओं म का अपना कोई समाज नहीं होता है, उनका समूह होता है. भीड़ होती है।
पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान, अतीत का स्मरण, वर्तमान के प्रति सजगता और भविष्य का चिन्तन वहां नहीं होता। समाज के निर्माण में इन मानवीय व्यावहारिक पक्षों का और जैविक क्षमताओं का बड़ा हाथ है। इनके अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
स्त्री और पुरुष जीवन-रथ के दो पहिये हैं। जीवन के संचालन में और सभ्यता के विकास में दोनों का संतुलित और समान महत्त्व है। सामान्यतः समाज-विकास को हम बाह्य भौतिक प्रगति से जोड़ते हैं और उसमें पुरुष की भूमिका को अधिक महत्त्व देते हैं पर भौतिक बाह्य विकास की सार्थकता पारिवारिक शान्ति, सामाजिक सुरक्षा और राष्ट्रीय उत्थान में है। यह निर्विवाद :
कहा जा सकता है कि परिवार की धुरी स्त्री है, महिला है, माता है, पत्नी । 1516
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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