Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

View full book text
Previous | Next

Page 579
________________ फफफफफफ ות कहा भी है कि अल्लाह अत्यन्त कृपाशील दयावान है और हर चीज का निगहबान है। भला कोई एक लड़के को मरवाये और दूसरे लड़के को उसका मांस खिलावे ऐसा कभी हो सकता है? सेण्ट ल्यूकस न्यूटेस्टामेण्ट में कहते हैं-कि जब तुम्हारे पिता प्रभु दयालु हैं तब उसकी सन्तान तुम भी दयावान बनो अर्थात् किसी को मत सताओ । डा. अलवर्ट स्वाइव्जर कहते हैं-हे ईश्वर! हमें पशुओं का सच्चा मित्र होने योग्य बनाओ, ताकि हम स्वयं दयापूर्ण आशीर्वाद बांटे क्योंकि दया युक्त धर्म ही विशुद्ध धर्म है। कहा भी है 'धम्मो दया विसुद्धो । भगवान बुद्ध कहते हैं 'Both man and bird and beast बिना पाँव के प्राणियों को मेरा प्यार। उसी तरह दो पाँव वालों को भी, और उनको जिनके चार पांव हैं, मैं प्यार करता हूँ और उन्हें भी जिनके कई पाँव हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने मांस खाने वाले, मांस का व्यापार करने वाले व मांस के लिये जीव हत्या करने वाले, तीनों को दोषी बताया है। उन्होंने कहा है कि जो दूसरे के मांस से मांस बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है, चैन से नहीं रह पाता। जो अन्य प्राणियों का मांस खाते हैं, दूसरे जन्म में उन्हीं प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं, जिस प्राणी का वध किया जाता है वह यही कहता है 'मांस भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्' अर्थात् आज वह मुझे खाता है तो कभी मैं उसे खाऊंगा । ईरान के दार्शनिक अल गजाली का कथन है कि रोटी के टुकड़ों के अलावा हम जो कुछ भी खाते हैं वह सिर्फ हमारी वासनाओं की पूर्ति के लिये होता है। : ईसाई धर्म ईसामसीह की शिक्षा के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं-तुम जीव हत्या नहीं करो और अपने पडोसी से प्यार करो तथा तुझे हत्या नहीं करना चाहिये । सिख धर्म गुरु अर्जुनदेव ने परमात्मा से सच्चा प्रेम करने वालों की समानता हंस से की है और दूसरों को बगुला बताया है उन्होंने बताया है कि हंसों की खुराक मोती है और बगुलों की मछली- मेंढक आदि । बौद्ध धर्म : बौद्ध धर्म के पंचशील अर्थात् सदाचार के पाँच नियमों में प्रथम प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 555555555555555 533 फफफफफफफफ

Loading...

Page Navigation
1 ... 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595