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45454545454545454545454545454545 15 उनके दूरगामी दुष्परिणामों पर सर्वाधिक गम्भीर विचार किया था और इसीलिए
उन्होंने अपने साहित्य में सर्वप्रथम "सर्वोदय" शब्द का प्रयोग कर एक सर्वोदयी उन्नत समाज की परिकल्पना की थी। परवर्ती काल में सर्वोदय की भावना वाले देश को Welfare State की श्रेणी में रखा गया।
जैनधर्म भावना-प्रधान है। उसमें बतलाया गया है कि किसी भी व्रत का पालन मन, वचन एवं कर्म रूप त्रियोग की पवित्रता के साथ होना अनिवार्य
है। यदि व्रत-पालन में मनसा, वाचा एवं कर्मणा कोई शिथिलता हुई या कोई । त्रुटि रह गई तो वह व्रत अतिचार-दोष से युक्त हो जायेगा।
समन्तभद्र ने पाँच अणुव्रतों में से प्रत्येक के 5-5 अतिचारदोष बतलाए हैं। इनमें से किसी भी अणुव्रत के सदोष-पालन से जिस उत्तम नागरिक बनने अथवा जिस स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण की आशा की जाती है, वह सम्भव नहीं। अतिचारों के लिए जैनधर्म में तो विविध प्रायश्चित्तों के रूप में
दण्डव्यवस्था की गई है, लेकिन यह दण्डविधान प्रायश्चित्त-मूलक ही है, जो - हृदय-परिवर्तन एवं आत्म-शुद्धि से सम्बन्धित है।
इस सन्दर्भ में यदि भारतीय आचार-संहिता (Indian Penal Code) का भी ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाये, तो उससे स्पष्ट विदित हो जायेगा कि उसमें जिन अपराधों की चर्चा है, वे वही अपराध हैं, जिन्हें रत्नकरण्डश्रावकाचार में पूर्वोक्त हिंसादि पाँच पापों तथा अणुव्रतों के 5-5 अतिचारों में प्रस्तुत किया E गया है। भारतीय आचार (अथवा दण्ड) व्यवस्था की विविध धाराओं में उन्हीं .
के लिए दण्ड-व्यवस्था की गई है। श्रावकाचार एवं भारतीय दण्डसंहिता की दण्ड-विधियों में अन्तर यही है कि श्रावकाचार की दण्ड-व्यवस्था स्वतः अथवा गुरु के आदेशोपदेश-पूर्वक प्रायश्चित्त एवं भावनात्मक अथवा आत्मशुद्धिकरण से ही सम्बन्धित है, जबकि इण्डियन पैनल कोड की दण्डव्यवस्था आर्थिक अथवा शारीरिक मात्र है, जिसमें पुलिस द्वारा मार-पीट एवं कारागार की सजा भी आती है। इसमें भावना अथवा आत्मशुद्धि से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं।
पाँच अणुव्रतों के 5x5 (=25) अतिचारदोष एवं Indian Penal Code में वर्णित अपराध-कर्मों में आश्चर्यजनक समता है। उसे निम्न तालिका से स्पष्ट समझा जा सकता है :आई.पी.सी. इण्डियन पैनल कोड की धारा संख्या के अनुसार अणुव्रत अथवा
अतिचारों के नाम अपराध विवरण (अध्यायक्रमानुसार) TE 1. भूमिका
1 न्याय विधिपूर्वक रहना अथवा ग्रहण
करना। 1548
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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