________________
454545454545454545454545454545
श्रावकव्रतातिचार एवं इण्डियन पैनल कोड
"सर्वोदय" शब्द के आद्य उद्गाता आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत IF "रत्नकरण्डश्रावकाचार" को न केवल जैनाचार की, अपितु राष्ट्रीय एवं
अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र-विकास की दृष्टि से एक प्रामाणिक आचार संहिता (Code Fi of Conduct) माना जा सकता है। इसमें श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ (House
Holder) को उत्तम नागरिक बनने हेतु यह शिक्षा प्रदान की गई है कि आत्मानुशासन में रहते हुए उसे किस प्रकार न्यायविधिपूर्वक परिवार का पालन-पोषण कर अपना जीवन-यापन करना चाहिए।
चाहे अधिवक्ता हो या चिकित्सक, शिक्षक हो या व्यापारी, गृहस्थ हो या साध, पुरुष हो या महिला, देशी हो या विदेशी, बालक हो या वृद्ध, समाजनेता हो या राजनेता, सभी के लिए समाज के नवनिर्माण एवं राष्ट्रीय अखण्डता एवं एकता की भावना के परिस्फुरण की दिशा में उक्त रत्नकरण्डश्रावकाचार की उपादेयता स्वतः सिद्ध है। विश्वनागरिकता के प्रशिक्षण के लिये यह कति एक प्रारम्भिक बालपोथी के प्रथम भाग के समान मानी जा सकती है।
हमारे महामहिम श्रमण साधकों ने संसार की समस्त समाज-विरोधी दुष्प्रवृत्तियों एवं अनाचारों को पांच भागों में विभक्त किया है-(1) हिंसा (Intury)2 झूठ (Falsehood)] (3) चोरी (Theft), (4) कुशील, (Unchastity) एवं (5) परिग्रह (Worldly attachment, hoarding)। जैनाचार में इन्हें “पाँच पाप" माना गया है। इनका तथा मद्य (मदिरा), मांस एवं मधु जैसी हिंसकविधियों से तैयार की जाने वाली वस्तुओं का सेवन मानवीय गुणों के विकास
में सर्वाधिक बाधक माना गया है। जीवन में इन आठों बाधक तत्त्वों का त्याग 4- करने वाला व्यक्ति ही आठ मूलगुणों का धारक. श्रावक अथवा सदगृहस्थ
कहलाता है। हिंसादि पाँच पापों के यथाशक्ति त्याग को पाँच अणुव्रतों की | संज्ञा प्रदान की गई है, जिनका निरतिचार (अर्थात् निर्दोष) पालन प्रत्येक
सदगृहस्थ के लिए अनिवार्य माना गया है।
-
-
1546
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर मणी स्मृति-ग्रन्थ
55147414514614750551515747575875