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1997-474455555!
फफफफ
कालशुद्धि और भावशुद्धि से है। द्रव्य सात्विक हो, सात्विक कमायी का हो,
सात्विक परिणाम से बनाया गया हो और जिस समय ग्रहण किया जाये उस समय भी सात्विक परिणाम हों तब वह रस, वह भोजन हमारे अंदर सात्विक भाव पैदा कर सकता है। इस प्रकार सात्विक आहार करने से हमारे शरीर के अंदर की ग्रन्थियों में सात्विक रसायन प्रवेश करेगा। उससे फिर सात्विक विचार बनेंगे, सात्विक अनुभव बनेंगे और फिर सात्विक आचरण बनेगा । सात्विक आहार के द्वारा ही हमारे नाभिकेन्द्र का विकास होता है।
अहिंसा की दृष्टि से हमारा भोजन कैसा होना चाहिये, यह एक महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। हमें वह भोजन लेना चाहिये जो जीवन-धारणा के लिये अनिवार्य हो । जिसकी अनिवार्यता न हो उसे नहीं लेना चाहिए। आदमी मांस खाकर जीता है, और अनाज खाकर जीता है? इन दोनों में से हम चयन करें तो मांस की अनिवार्यता है या अनाज की अनिवार्यता। हिंसा की संभावना मांस खाने में अधिक है या अनाज खाने में? इस चयन का फलित होगा कि मांस खाना अनिवार्य नहीं है। अनाज खाना अनिवार्य है। मांस को छोड़ने वाला शाकाहार के बल पर जी सकता है। शाकाहार जीवन की अनिवार्य अपेक्षा । उसे छोड़ा नहीं जा सकता। उसके बिना काम नहीं चल सकता। अनाज और मांस दोनों की तुलना में मांस का भोजन मनुष्य को अधिक क्रूर बनाता है। जो लोग मांसाहारी हैं वे अगर एक बार बूचड़ खाने में चले जायें तो संभव है, उनके लिये मांस खाना मुश्किल हो जाये। हर आदमी इतना क्रूर नहीं होता कि वह हजारों-हजारों प्राणियों की मृत्युकालीन चीखों और पीड़ाओं को झेल सके। प्राणिमात्र में प्रवाहित प्राण ऊर्जा को अपनी प्राण-ऊर्जा के समान देखने वाले लोग मांस कैसे खा सकते हैं? नहीं खा सकते। अनाज खाने में भी हिंसा होती है, परंतु आंतरिक क्रूरता की दृष्टि से मांस भोजन की कोटि में नहीं आता। जिन लोगों ने करुणा से आर्द्र होकर देखा, उन सबने एक स्वर में कहा, "मनुष्य विवेकशील प्राणी है। प्राकृतिक चिकित्सकों ने अन्वेषण कर यह प्रमाणित किया है, कि मनुष्य मांसाहारी नहीं है। मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों के भोजन तंत्र के बनावट में मौलिक अंतर होता हैशाकाहारी तथा मांसहारी प्राणी की रचना में अन्तर
1. शाकाहारी प्राणी जल पीते हैं, किन्तु मांसाहारी प्राणी जल को पीते नहीं अपितु चाटते हैं
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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