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1. तामसिक आहार तामसिक भोजन शांतिपथ की दृष्टि से अत्यन्त निष्कृष्ट है क्योंकि इससे प्रभावित हआ मन अधिकाधिक निर्विवेक व कर्तव्यशन्य होता - चला जाता है। तामसिक वृत्ति वाले व्यक्ति अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने पड़ोसियों के लिये भी दुःखों का तथा भय का कारण बने रहते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक वृत्ति का झुकाव प्रमुखतः अपराधो, हत्याओं अन्य जीवों के प्राणशोषण तथा व्यभिचार की ओर अधिक रहा करता है। हमारा शरीर
परमात्मा का मंदिर है, जो भी भोजन इस शरीर में जायेगा उससे रस बनेगा, - खून-मांस, मज्जा आदिक बनेगा । वह जब ग्रंथियों में पहुंचेगा तो उस रसायन TE
से हमारे अंदर वैसे ही विचार उत्पन्न होंगे और फिर वैसी ही हमारी अनुभूति होगी और जैसी अनुभूति होगी वैसा ही हमारा आचरण बनेगा। 2. राजसिक आहार -राजसिक भोजन का प्रभाव व्यक्ति को विलासिता के वेग में बहा ले जाता है और इन्द्रियों का पोषण करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। आज के युग में इसका बहुत अधिक प्रचार हो गया है। होटलों व खींचे वालों की भरमार वास्तव में मानव की इस राजसिक वृत्ति का ही फल है। अधिक चटपटे घी में तलकर अधिकाधिक स्वादिष्ट बना दिये गये, तथा एक ही पदार्थ में अनेक-अनेक ढंग से अनेक स्वादों का निर्माण करके ग्रहण किये गये या यों कहिये कि 36 प्रकार के व्यंजन या भोजन की किस्में अथवा पौष्टिक व रसीले पदार्थ सब राजसिक भोजन में गर्मित हैं। ऐसा भोजन करने से व्यक्ति जिह्वा का दास बने बिना नहीं रह सकता
और इसलिये शांति पथ के विवेक से वह कोसों दूर चला जाता है। 3. सात्विक भोजन -सात्विक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है, जिसमें ऐसी ही वस्तुओं का ग्रहण हो जिनकी प्राप्ति के लिये स्थूल हिंसा न करनी पड़े अर्थात् दूध, अन्न, घी, खांड व ऐसी वनस्पतियाँ जिनमें त्रस जीव अर्थात उड़ने व चलने-फिरने वाले जीव न पाये जाते हों। ऐसा भोजन ग्रहण करने से जीवन में विवेक, सादगी, दया, करुणा, सेवा, परोपकार आदि के परिणाम सुरक्षित रहते हैं। यहाँ इतना जानना आवश्यक है कि उपरोक्त सात्विक पदार्थ ही तामसिक या राजसिक की कोटि में चले जाते हैं, यदि इनको भी अधिक मात्रा में प्रयोग किया जावे। भूख से कुछ कम खाने पर अन्न सात्विक है और अधिक खाने पर तामसिक । क्योंकि तब वह प्रमाद व निद्रा का कारण बन जाता है। इसके साथ ही आहारशुद्धि से तात्पर्य-द्रव्यशदि, क्षेत्रशद्धि,
प्राममूर्ति आचार्य सान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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