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की तुलना में कठिन जीवन नहीं जीना पडता है। दिन-प्रतिदिन के कार्य सहज बन गये है। पानी लाना, भोजन पकाना, कपड़े धोना, आटा पीसना, सफाई करना, अब नारी के लिए कष्टकारक नहीं रहे। विज्ञान ने बिजली, टेलीफोन, यातायात आदि साधनों के द्वारा दिन-प्रतिदिन के घर-गृहस्थी सम्बन्धी कार्यों ! को इस प्रकार संयोजित किया है कि समय और श्रम की काफी बचत हो जाती है। अब साधारण महिला भी अपना सारा दिन चौके-चूल्हे में लगाये, ऐसा नहीं रहा है। घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी संभालने के बाद भी प्रतिदिन उसे कुछ समय अवकाश का मिल जाता है। इस अवकाश का सदुपयोग अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार समाज के विकास में करना चाहिए। ऐसा न हो कि टी.वी., फिल्म और मनोरंजन के अन्य क्षेत्रों में यह समय व्यर्थ चला जाये। अनपढ़ों को साक्षर बनाने में, रोगियों की सेवा करने में कमजोर छात्रों
को पढ़ाने-लिखाने में असहायों की मदद करने में, बहरे, अन्धे, लूले-लंगड़े, LE विकलांगों की जरूरतें पूरी करने में, बचे हुए समय का उपयोग करना चाहिए।
समाज का विकास सम्यक् जीवन-दृष्टि पर निर्भर है। आज जीवन 51 के प्रति कोई दृष्टि नहीं है। किताबी ज्ञान बहुत है, विस्तृत है पर आत्मज्ञान LE की कमी है। जीवन को नैतिक दृष्टि से पुष्ट और प्रामाणिक बनाने के लिये LE
सत्संग और स्वाध्याय आवश्यक है। प्रत्येक महिला का यह कर्तव्य है कि वह अपने परिवार में अध्यात्मिक स्फूरणा जागृत करे। घर को मंदिर बनाकर रखे, तभी वह समाज के विकास को सही दिशा में आगे बढ़ा सकेगी।
आज की महिला मोटे तौर से शिक्षित है। आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने ज्ञान का उपयोग समाज के मात्र बाह्य विकास में न करे वरन् व्यक्ति के आन्तरिक विकास में प्रभावकारी तरीके से उसे लगाये। मन, वचन और काया की जो प्रवृत्ति है, उसे विध्वंसकारी कार्यों से न जोड़े, । रचनात्मक कार्यों में अपनी शक्तियों का सही उपयोग करे। तब समाज आतंक - से नहीं अनुराग से जुड़ेगा, क्रूरता का स्थान करुणा और यांत्रिकता का स्थान
हार्दिकता लेगी। समाज के विकास की यही सच्ची कसौटी है।
- जयपुर
डॉ. शान्ता भानावत
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ -
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