Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 567
________________ 5164545454545454545454545454545 व्यसन मुक्त जीवन : मानव जीवन की सार्थकता सामान्यतः व्यसन शब्द का अर्थ व्यक्ति का किसी कार्य में लीन होना है। विशेष रूप में पाप कार्य में लीन होना व्यसन है। वैसे जो मानव को सदा व्यस्त ही बनाये रखे, क्षण भर विश्राम न लेने दें, उसे व्यसन कहा है। इस आधार पर सद् व्यसन और असद व्यसन के भेद से व्यसन दो प्रकार LE के होते हैं। जीवन निर्माण हेतु सत्कार्यों में संलग्न रहना सद्व्यसन है और इसके विपरीत अहितकारी दोषपूर्ण पाप-कार्यों में लीन रहना असद व्यसन है। सदव्यसन ग्राह्य और असद व्यसन त्याज्य है। संस्कृत साहित्य के प्रथित नीतिकार आचार्य सोमदेव सूरि ने अपने नीति वाक्यामृत में 'व्यसन' का लक्षण बताया है-"व्यस्यति पुरुषं श्रेयसः इति । व्यसनम" अर्थात व्यक्ति को कल्याण मार्ग से विचलित करने वाले कार्य ही व्यसन हैं। विजय की इच्छा से एवं आदतों के वशीभूत होकर मनुष्य जिन अकरणीय कार्यों को करता है, वही व्यसन हैं। बुरे व्यसन चाहे अणु मात्र 51 ही क्यों न हों प्राणी को अहर्निश सन्तापित किया करते हैं। ये व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमित कर निंद्य से निंद्य कार्य करने को बाध्य कर देते हैं। आचार्य वादीभसिंह ने क्षत्रचूड़ामणि में कहा है व्यसनासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति। न वैदुष्यं न मानुष्यं नामिजात्यं न सत्यवाक् ।। अर्थात व्यसनाक्त मनुष्यों के कौन से गुण नष्ट नहीं होते? धर्म, विद्वत्ता, मानवता, कुलीनता और सत्यवादिता सभी नष्ट हो जाते हैं। बुरे व्यसनी व्यक्ति के दोनों लोक दुःखदायी होते हैं। आचार्यों ने मोक्ष-प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष रहित एवं आठ अंग सहित सम्यक् परिपालन के साथ-साथ सप्त व्यसन त्याग पर अत्यन्त बल दिया है। इनके त्याग के बिना संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति नहीं हो सकती। व्यसनी व्यक्ति व्यसनों से आक्रान्त होकर अपने मार्ग से विचलित हो जाता है। व्यसन प्राणी को पहले लुभाते हैं, मोहित करते हैं, फिर व्यसनी 4545454545454545454545454545454545454545454545 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 521 454545454545454545454545454554615

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