Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 545
________________ 5959555555559999999 शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों से ग्रसित नहीं थे, परन्तु जब हमने आचारगत - मर्यादाओं का उल्लंघन कर स्वेच्छाचारिता के वशीभूत होकर आचरण प्रारम्भ : कर दिया, तो वर्तमान में बड़ी विषमतायें उत्पन्न हो गयीं। पहले व्यक्ति व्रत, नियमों के कारण स्वयं संयमित था आज चिकित्सकों के द्वारा तरह-तरह से प्रतिबन्धित होकर जबर्दस्ती संयमी बनना पड़ रहा है। लेकिन जबर्दस्ती के त्याग से हमें भावों की अपेक्षा विशेष लाभ नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में लिखा है परिणमदि जेण दव्यं तवकालं तम्मयति पण्णतं। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो सो मुणेदव्यो।। अर्थात् जिस समय जो आत्मा जिस भाव रूप से परिणमन करता है उस समय वह आत्मा उसी रूप से है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके ही हम आत्मा का 11 दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। उपनिषदों में कहा गया है-'त्यागपूर्वक उपभोग करो। किसी भी वस्तु में आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए। आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मिलावट, दिखावट एवं सजावट की चकाचौंध में व्यक्ति अपने शाश्वत मूल्य, जो अनुभव की कसौटी पर परीक्षित होने के कारण सार्वभौमिक सत्यता को लिए हुए हैं, उन सबसे बहुत दूर भाग रहा है। जिसके कारण वह अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक तनावों से युक्त हो रहा 51 है। हम दूसरों को धोखा दे सकते हैं परन्तु अपने आपको नहीं, क्योंकि स्वयं LE के द्वारा किए गए अपराध से व्यक्ति सशंकित रहता है जिसके कारण वह ए. निश्चिन्त नहीं रह पाता। सावधानीपूर्वक या निरालस्य-भाव से क्रिया करने पर हमें दोष नहीं लगता। श्रावक दृढ़ आस्था के साथ सम्यग्दर्शन को स्वीकार करके अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थ धर्म के प्रयोजक बारह व्रतों को धारण करता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' नामक ग्रंथ में लिखा TE है-"रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः" अर्थात् राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए - भव्यजीव चारित्र को प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञानी जीव का पाप की प्रणाली स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा परिग्रह से निवृत्ति होना चारित्र कहा TE जाता है। वह चारित्र दो प्रकार से कहा गया है___"सकलं विकलं धरणं तत्सकलं सर्वसंग विरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम्।। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 499 FIFIEFI LEEEEEEELETELETEL F IEIFIEFIFIFIFIFI 51544दाना

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