Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

View full book text
Previous | Next

Page 543
________________ श्रावक और उसके पञ्च अणुव्रतों का जीवन में महत्त्व जैन संस्कृति में आचरण का विशिष्ट स्थान है। आचरण वह दर्पण है जिसके आलोक में व्यक्ति के निर्मल भावों का स्पष्ट निदर्शन होता है, वीतरागता के पथ पर चलकर ही वह अपने परम परमार्थ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। उसके बिना भावों में निर्विकारता नहीं आ सकती। उसके अभाव में ध्यान या उपयोग में तन्मयत्व स्थापित नहीं हो सकता और ध्यान के बिना मुक्ति असंभव है। साधना के साधकों की अपेक्षा जैनधर्म को दो भागों में विभक्त किया गया है -(1) श्रमण या मुनिधर्म, (2) 卐 श्रावक धर्म। मुनिधर्म के पालयिता पूर्ण महाव्रतधारी होते हैं या साक्षात् । - निर्विकारता के प्रतीक होते हैं तथा श्रावक धर्म के पालनकर्ता उस निर्विकारता । की प्राप्ति हेतु निरन्तर अभ्यास करने वाले होते हैं। श्रमण और श्रावक दोनों ही 'परस्परोपग्रहो जीवानां सूत्र को चरितार्थ करते हैं अर्थात् दोनों ही एक दूसरे का उपकार करते हैं। श्रावक मुनियों को आहार दान आदि के द्वारा उनकी संयम साधना की वृद्धि करने में सहायक बनते हैं और मुनि श्रावकों को धर्मोपदेश द्वारा अज्ञानता के मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा प्रदान करते हैं। जैन आचार शास्त्र में व्रतधारी गृहस्थ श्रावक, अणुव्रती. देशविरत, सागार आदि नामों से जाना जाता है। दूसरे शब्दों में सदगृहस्थ का ही अपरनाम श्रावक है जिसका अपभ्रंश शब्द अनेक जगह 'सरावजी' प्रचलित LE हो गया है। श्रावक शब्द का अर्थ है सुनने वाला अर्थात् जो अपने निर्ग्रन्थ गुरु से आत्मकल्याण का उपदेश सुने 'शृणोतिइति श्रावकः । श्रावक का TE सामान्य स्वरूप सागारधर्मामृत ग्रन्थ में पण्डितप्रवर 'श्री आशाधर जी ने लिखा है न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्ग भजन्। अन्योन्यानुगुणं तदहगृहिणी स्थानालयो हीनयः।। युक्ताहार विहार आर्यसमितिः प्रायः कृतको पसी। शृण्वन् धर्मनिर्षि दयालुरखमीः सागारधर्म चरेत्।। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 437457467957457467457457 454545454545

Loading...

Page Navigation
1 ... 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595