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IIEIFIEIFIFIEIFIFIFIFI निप्रयोजन होने वाली हिंसा को रोका जाए. यही गुणव्रत है। जीवन में आयी विषमता और विचलन को रोकने के लिए समभाव की साधना आवश्यक है। | दैनन्दिन प्रवृत्तियाँ मन को चंचल बनाती हैं अतः आवश्यक है कि प्रतिदिन उपयोग में आने वाले पदार्थों को नियंत्रित किया जाए। आत्मगुणों का पोषण
हो, इसके लिये इन्द्रियों का संयमन किया जाए और जो कुछ अपने पास - है, उसका उपयोग दूसरों के लिए हो, ऐसी प्रवृत्ति की जाए, ताकि मोह और
आसक्ति को छोड़ने का अभ्यास बना रहे, यही शिक्षाव्रत है। अणुव्रतधारी गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को धारण करके प्रतिमाधारी बन जाता है, जिसे हम "व्रत प्रतिमा" कह सकते हैं अर्थात् व्रत को केवल उसने रस्मी तौर पर नहीं धारण किया है, बल्कि अपने जीवन में उनका परिपालन कर स्वयं व्रत का
प्रतीक बन गया है, व्रत की प्रतिमा बन गया हैं। ऐसा व्यक्ति ही आज के 2ी संदर्भ में आदर्श नागरिक है, विश्व-नागरिक है, विश्व मानवता का सच्चा
प्रतिनिधि है, मानव देह में देवता है।
जयपुर
डॉ. नरेन्द्र मानावत
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मति-ग्रन्थ
LG F454