Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ - सब 1545955454545454545454545454545755 पावसुदेवहिंडि तथा हरिषेण कृत वृहत्कथा कोश के अन्तर्गत कुछ नामों में परस्पर विभिन्नता पाई जाती है जिनका उल्लेख इन पंक्तियों के लेखक ने अपने 'द रोल ऑव धरणेन्द्र इन जैन माइथोलोजी' (ऑल इंडिया ओरिटियल कान्फरेन्स. जयपुर-1982) नामक लेख में किया है। पूर्वागत परंपराओं की भिन्नता ही इस विभिन्नता का कारण समझना चाहिए। यहांधरणेन्द्र के संबंध में भी दो भिन्न-भिन्न मान्यताएं देखने में आती हैं (अ) वसुदेवहिंडि (पृ. 305, पंक्ति 24-26) के अनुसार धरणेन्द्र इन्द्रपद से च्युत होकर तीर्थंकर पद प्राप्त करेगा जबकि उसकी अल्ला, अक्का आदि अग्रमहिषियां उसकी गणधर होंगी; (आ) हरिवंशपुराण (27.137-38) तथा वृहत्कथा कोश (78.260) के अनुसार नागराज धरणेन्द्र श्रेयांसनाथ तीर्थकर के गणधर पद को प्राप्त होगा। यहां भी परंपराओं की भिन्नता ही कारण समझना चाहिये। आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम (तीसरी पुस्तक) की टीका में कतिपय परस्पर विरोधी मान्यताओं की ओर लक्ष्य किया है। (5) आचार्य जिनसेन के अनुसार नारद चरमशरीरी (42.22) थे और वे मोक्षगामी (65.24) हुए, यद्यपि दिगंबर मान्यता के अनुसार उन्हें नरकगामी कहा गया है। (6) दिगंबर संप्रदाय की सामान्य मान्यता के विपरीत हरिवंशपुराण (66.8) में यशोदा-कन्या के साथ 'वीर विवाहमंगल' के उल्लेखपूर्वक महावीर भगवान के विवाह को सूचित किया गया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परंपरा में भी महावीर भगवान के विवाहित एवं अविवाहित होने संबंधी दोनों मान्यताओं का उल्लेख है (देखिये लेखक का प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ. 69 का फुटनोट) (1) जिनेन्द्र भगवान के नाममात्र से पीडाकारक ग्रहों की शान्ति मानी गई है (66.41)| चक्रधारिणी, अप्रतिचक्र देवता, ऊर्जयन्त (गिरनार) पर्वत पर निवास करने वाली सिंहवाहिनी अंबिका देवी से कल्याणप्रद होने की प्रार्थना की गई है। कर्णाटक में ज्वालामालिनी, पदमावती, सिद्धायिका आदि देवियों की मान्यता प्रचलित थी। इस मान्यता का प्रभाव रहना आश्चर्यजनक नहीं। आचार्य जिनसेन की इस विशाल रचना में धर्म एवं नीति संबंधी अन्य कितने ही ऐसे विषय हैं जिनका अधिकारपूर्वक सटीक विवेचन किया गया है। इस परिप्रेक्ष्य में इस रचना का आलोचनात्मक अध्ययन अत्यंत आवश्यक 454545454545454545454545454545454545 डॉ. जगदीशचंद्र जैन 510 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ । SHSL: 45645745454545454545454545 IPI 1-1-1-1-ाााा

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595