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आचार्य श्री शान्तिसागर (छाणी) महाराज का
प्रभावक जीवन
भगवान महावीर निर्वाण के पश्चात जब क्रमशः श्रतकेवलियों का भी अभाव हो गया तब आचार्य ही जैनधर्म के प्रमुख प्रवक्ता माने जाने लगे। आचार्य कुन्दकुन्द को उस दृष्टि से प्रथम मंगलस्वरूप आचार्य स्वीकृत किया गया। उनके पश्चात् वट्टकेर, शिवार्य, कार्तिकेय, गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, सिद्धसेन. पज्यपाद, पात्रकेशरी, जोइंद, मानतुंग, रविषेण, अकलंक, वीरसेन जिनसेन, विद्यानन्दि, महावीराचार्य (9वीं शताब्दी) अमृतचन्द्राचार्य (10वीं शताब्दी), प्रभाचन्द्र (10वीं शताब्दी), आ. शुभचन्द्र (11वीं शताब्दी) जैसे प्रभावक आचार्य हुए, जिन्होंने जैनदर्शन, साहित्य एवं संस्कृति को पल्लवित पुष्पित करने में अपना अपूर्व योगदान दिया। आचार्यों की यह परम्परा 13वीं शताब्दी तक अनवरत चलती रही।
दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास भट्टारक परंपरा का उद्भव हुआ। काल दोष से धीरे-धीरे मुनि पद की साधना कठिन होती गई और वीतरागी, निरारम्भी, अपरिग्रही दिगम्बर मुनियों-आचार्यों का दर्शन दुर्लभ होता गया। यह भट्टारक परम्परा 14वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी तक अपने चरमोत्कर्ष पर रही और इस परम्परा में भट्टारक, प्रभाचन्द्र, पद्मनंदि, सकलकीर्ति, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र (द्वितीय). चारुकीर्ति, सोमकीर्ति जैसे अनेक भट्टारक हए जिन्होंने चार-पाँच सौ वर्षों के उस मुगल-काल में अपने प्रभाव से जैनधर्म को अनेक संकटों से बचाए रखा, जैन साहित्य की सुरक्षा एवं संग्रह करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और नवीन साहित्य भी रचा। इस प्रकार जैन संस्कृति एवं साहित्य के संरक्षण में भट्टारकों का भी उल्लेखनीय योगदान रहा है।
मुगलकाल में मुनियों के दर्शन ऐसे दुर्लभ हो गये कि कविवर भूधरदास, द्यानतराय जैसे कवियों को "वे मनि कब मिलि हैं उपकारी" जैसे पदों की रचना करनी पड़ी। महाकवि वनारसीदास को भी निर्दोष निर्ग्रन्थ मुनि के दर्शन नहीं हो सके। पं. टोडरमलजी ने भी अपने ग्रन्थ में मुनि दुर्लभता का उल्लेख किया है।
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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