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का प्रभाव गाँव पर था और यहाँ का छोटा सा जैन समाज भी जैन संस्कारों
तीर्थ का धनी था।
इसी गाँव में दशा हूमड़ जैन समाज का एक ही घर श्रावक भागचंद जैन का था, जो गाँव में ही अपने छोटे-मोटे व्यवसाय से अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनकी पत्नी माणिक बाई धार्मिक संस्कारों से परिपूर्ण थीं। दोनों पति-पत्नी शान्तिपूर्वक जीवन यापन करते थे। गाँव के पास ही भगवान महावीर का जैन मंदिर हैं, मंदिर की प्रसिद्धि होने के कारण दूर-दूर से जैन बन्धु सपरिवार दर्शनाथ आते रहते हैं। श्रेष्ठी भागचन्द एवं उनकी धर्मपत्नी माणिकबाई भी इसी मंदिर में दर्शनार्थ जाते और नित्य पूजा-पाठ करते थे। इस प्रकार भागचन्द जैन के परिवार की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ने लगी। विवाह के कुछ वर्षों पश्चात् माणिकबाई ने एक पुत्र एवं पुत्री को जन्म दिया, जिनका नाम खमजी भाई एवं फूलबाई रखा गया। माता माणिकबाई वदी 11 संवत् 1945 (सन् 1888) में अपनी तीसरी संतान के रूप में फिर एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का जन्म होते ही सारे गाँव में आनन्द छा गया। घर में मंगल गीत गाये जाने लगे। माता-पिता की खुशी की कोई सीमा नहीं रही और चारों ओर सुख शान्ति व्याप्त हो गई । "आनन्द भयो तब पुर मझार, घर-घर मंगल गावे सुसार" भागचन्द जी का यह दूसरा बालक जब 40 दिन का हुआ, तब उसने प्रथम बार जिनदर्शन किये। उसके कानों में णमोकार मंत्र के शब्द सुनाये गये। शिशु का नाम केवलदास रखा गया। बालक द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा । लुभावनी आकृति, मधुर भाषण एवं विनयशीलता के कारण चारों ओर केवलदास की प्रशंसा होने लगी ।
कार्तिक
अध्ययन
केवलदास ने गाँव की पाठशाला
ही पढ़ना लिखना सीखा। यहीं
पहाड़े
सीखे। जोड़ बाकी गुणा और भाग सीखा और इस प्रकार कुछ ही वर्षों
में बालक केवलदास "पढ़े लिखे" की गिनती में आ गये। उनकी मातृभाषा बागड़ी या गुजराती मिश्रित हिन्दी थी। वही बोलचाल की भाषा थी। केवलदास को बचपन से ही लोगों को शिक्षा की बातें सुनाने में आनन्द आता था ।
वह आज से लगभग 100 वर्ष पहिले का युग था। छोटे गाँव की बात
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ
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