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लगा। विवाह के सिर्फ सात वर्ष बाद ही विक्रम सम्वत् 1975 में उनको फिर एक गहरा आघात लगा। वह लाड़ली बह भी सारे परिवार को बिलखता
छोड़कर सदैव के लिए चली गई। किशोरीलाल के युवा मन का दर्पण F1 भी इस करारी चोट से अक्षत न रह सका। वह प्रायः उदास रहने लगा। पूर्ण - यौवन में उनकी इस उदासीनता को देख परिजनों ने दो वर्ष बाद उनका
दूसरा विवाह भी कर दियां इस प्रकार फिर उस घर से मातमभरी उदासी भ ने विदा ली। पुत्र-वधू ने भी कुलमर्यादा के अनुरूप अपने गुरुतर दायित्व का
- पन्द्रह वर्ष तक सफलतापूर्वक निर्वाह किया। सारा परिवार आमोद-प्रमोद - में खोया रहता, किन्तु भविष्यत् को कौन टाल सकता है। वि. सं. 1992 में
उनकी जीवन-संगिनी भी बीच में ही हाथ छुड़ा कर चली गई। TE गृहस्थ-जीवन के इन झंझावातों का किशोरीलाल के मन पर कोई विपरीत
- प्रभाव न पड़ा, जो स्वाभाविक ही था । बाल्यावस्था में ही पितृ वियोग, पूर्ण यौवन 47 में दो-दो पत्नियों का वियोग, माता का वियोग, इत्यादि घटनाओं ने उन्हें संसार की असारता का अच्छा बोध करा दिया था।
राग और विराग में केवल दृष्टि का ही भेद है। जब उनकी दृष्टि ही ' पलट गई, तब भला गृहस्थी के बन्धन उन्हें कैसे बाँध सकते थे? विक्रम संवत्
1993 में उन्होंने साधना के कठिन मार्ग को अपनाते हुए व्रत-प्रतिमा धारण - करके देश-संयम की दूसरी सीढ़ी पर चढ़कर मोक्ष-मार्ग की तरफ कदम बढ़ाया। अब तो उनकी एक ही रट थी
___ 'कब गृहवास सो उदास होय, वन सेऊ
लखू निज रूप, गति रोकू मन-करी की? जहाँ चाह, वहाँ राह- जिसे गृहवास के त्याग की चाह हो, उसे भला घर कैसे बाँध कर रख सकता है। विक्रम संवत् 1997 में वह शुभ घड़ी भी - आई जब पाटन (झालावाड़) में उन्होंने अपने पूज्य गुरु आचार्य श्री विजयसागर 4 जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा लेकर गृहस्थ जीवन को तिलांजलि देकर साट
क के एक नवजीवन का प्रारंभ किया।
अन्तरात्मा साधक को बाहर का कुछ भी नहीं सुहाता है, फिर भला वही - लैंगोटी और खण्ड-वस्त्र में क्यों कर उलझे रहते। उन्हें तो अब चाह लंगोटी - की दुःख भाले, लंगोटी की इच्छा भी चिन्ताजनक प्रतीत हुई। अपने श्रद्धेय 1 गुरुजी की प्रेरणा से कापरेन नगर में ऐलक दीक्षा लेकर तीन वर्ष तक दिगम्बरी
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प्राममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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