Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 497
________________ 55555555555555555555555 卐卐卐卐卐卐卐5555555卐 मुस्लिम युग के जैनाचार्य 13वीं शताब्दी से ही देश में मुसलमानों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे। इन आक्रमणों से त्रस्त एवं भयभीत होकर महापंडित आशाधर को मांडलगढ़ छोड़कर धारा नगरी जाकर रहना पड़ा था। अलाउद्दीन खिलजी के दिल्ली राजदरबार में दिगम्बराचार्य माधवसेन का दो ब्राह्मण पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ तथा उसमें माधवसेनाचार्य की विजय हुई थी। इसके पश्चात् फिरोजशाह तुगलक के दरबार में भी आचार्य प्रभाचन्द्र का दो विद्वानों राघो चेतन से शास्त्रार्थ हुआ तथा ब्राह्मण विद्वानों द्वारा अनेक चालबाजियां अपनाने के उपरान्त भी जीत प्रभाचन्द्र की हुई थी। प्रभाचन्द्र दिगम्बर मुद्रा धारक आचार्य थे लेकिन भट्टारक कहलाते थे। आचार्य प्रभाचन्द्र को बादशाह के हरम में जाना पड़ा तथा रानियों को सम्बोधित करना पड़ा था। इस प्रकार भट्टारक प्रभाचन्द्र का स्वतः ही प्रभाव बढ़ गया और वे चारों ओर जन-जन के पूज्य बन गये । सन् 1351 से 1850 तक भट्टारक ही आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु के रूप में जनता द्वारा पूजित थे। ये भट्टारक प्रारम्भ में नग्न होते थे इसलिये भट्टारक सकलकीर्ति को निर्ग्रन्थराज कहा गया है। आँवा (राजस्थान) में भट्टारक शुभचन्द्र, जिनचन्द्र एवं प्रभाचन्द्र की जो निषेधिकाएं हैं वे तीनों ही नग्नावस्था की हैं। ये भट्टारक अपना आचरण श्रमण परम्परा के पूर्णतः अनुकूल रखते थे। वे अपने संघ के प्रमुख होते थे और संघ की देखरेख का सारा भार इन पर ही होता था। इनके संघ में मुनि, उपाध्याय, ब्रह्मचारी एवं आर्यिकाएं होतीं थीं। प्रतिष्ठा महोत्सवों एवं विविध व्रत-उपवासों की समाप्ति पर होने वाले आयोजनों के संचालन में इनका प्रमुख हाथ होता था। राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में ऐसी हजारों पाण्डुलिपियां संग्रहीत हैं जोइन भट्टारकों की विशेष प्रेरणा से विभिन्न श्रावक-श्राविकाओं ने व्रतोद्यापन के अवसर पर लिखवाकर इन शास्त्र भण्डारों में विराजमान कीं थीं। इस दृष्टि से इन भट्टारकों का सर्वाधिक योग रहा। संवत् 1350 से सवत् 1900 फफफफफफ प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 451 卐卐纷纷纷纷纷纷纷纷纷纷卐卐卐卐

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