Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 539
________________ की रक्षा नहीं कर पाता। अश्लील नृत्य, अश्लील गायन, अश्लील साहित्य का पठन-पाठन, अश्लील विज्ञापनों का प्रदर्शन योजनाबद्ध तरीके से आज परिवार और समाज में इस प्रकार छा रहा है कि हम शरीर से स्वस्थ लगते L: हुए भी मन से रुग्ण और निराश बनते जा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति ने 1 3 कामवृत्ति को अधिक जागृत कर दिया है। भोगलिप्सा इतनी बढ़ गई है कि ED उससे व्यक्ति मानसिक रूप से दुर्बल बन गया है। दुख, द्वन्द्व और तनाव । L: इतना अधिक है कि सब प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं के होते हुए भी : व्यक्ति भीतर से एकाकी है, रिक्त है, अपने आत्म-विश्वास को खो बैठा है, - स्वाधीन भाव लुप्त हो गया है। पर पदार्थों को भोगने की वृत्ति ने उसे पराधीन बना दिया है। भोग का दुःख नारकीय यंत्रणा से कम नहीं नरक के जो सात स्तर बताये गये हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, महातमाप्रभा; ये सब ब्रह्मचर्य के अभाव में भोगवृत्ति अतिरेक से उत्पन्न मानसिक अवस्थाएँ ही हैं, जिनमें व्यक्ति प्रारम्भ में रत्न की तरह चकाचौंध से आकर्षित होता है पर धीरे-धीरे भोग के जाल में वह 51 फंसता जाता है। कीचड़ की तरह वह फंस जाता है। चाहने पर भी निकल 57 LF नहीं पाता, उसकी दृष्टि धुंधला जाती है और वह टैन्शन के अंधकार से डिप्रेशन LE F- के महांधकार में डूबता चला जाता है। जब तक उपभोग दृष्टि उपयोग दृष्टि 1 नहीं बनती, भोग के स्थान पर संयम और त्याग का भाव जागृत नहीं होता, LE तब तक वह शान्त और सुखी नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य का मर्यादापूर्वक पालन LE - करने वाला व्यक्ति ही अपनी अधोमुखी चेतना को उर्ध्वगामी बना सकता है। उर्ध्वगामी चेतना संयम और त्याग की प्रतीक है। सुधर्म, सहस्रार, अच्युत आदि देवलोक, भद्र, सुभद्र, सुजात, सुमानष, सुदर्शन, प्रियदर्शन, अमोह, सुप्रतिष्ठित और यशोधर रूप नाम के अनुरूप ग्रैवेयक, विजय, वैजयन्त. जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि रूप अनुत्तर विमान अपने ऊर्ध्वचेतन अवस्था के प्रतीक हैं। सुधर्म से लेकर अपनी सभी मनोकामनाएँ सिद्ध करने की स्थिति रूप सर्वार्थसिद्धि अवस्था उत्तरोत्तर संयम-यात्रा की ही प्रतीक है। परिग्रह परिमाण व्रतधारी बाहरी और आन्तरिक परिग्रह की मर्यादा करता है। परिग्रह-संचय के मूल में कामना निहित रहती है। इसीलिए इस व्रत को इच्छा परिमाण व्रत भी कहा गया है। वर्तमान संदर्भ में वैज्ञानिक प्रभाव के कारण व्यक्ति ने अपनी इच्छाओं को ही आवश्यकता समझ लिया है और 15 - प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 493 PILLELEबाबाना 1151STENSIFFIFIFIFIFI

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