Book Title: Prashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Mahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali

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Page 534
________________ 45455451461454545454545454545454545 4 धार्मिक अनुष्ठानों और क्रियाकाण्डों के क्षेत्र में ही और वह भी बहुत ही स्थूल' रूप में ऊपरी सतह पर। व्रत की मूल अवधारणा और उसकी प्रभावक शक्ति TE -0 से आज का व्यक्ति परिचित नहीं है। - व्रत मानवीय ऊर्जा और क्षमता का प्रतीक है। जीवन में जो अशम है, कर्म में जो अनिष्टकारी है. व्यवहार में जो निषिद्ध है, उससे हटना, दूर 51 रहना व्रत है। इसी दृष्टि से 'विरतिव्रतम्' कहा गया है अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कशील और परिग्रह से विरत होना व्रत है। यह व्रत का निषेधात्मक पक्ष है। व्रत का विधेयात्मक पक्ष है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, संयम और अपरिग्रह का अपनी शक्ति अनुसार संकल्पबद्ध होकर, प्रतिज्ञा लेकर नियम लेना और विवेकपूर्वक यथाशक्ति उनका पालन करना। इस प्रकार के व्रत-धारण में भौतिक लाभ की आकांक्षा नहीं रहती, क्षुद्र स्वार्थपूर्ति का लक्ष्य नहीं रहता। मुख्य लक्ष्य रहता है-अपनी सुषुप्त आत्म-शक्ति का विकास करना, अपनी आत्मा से अपनी आत्मा में प्रवृत्त होना, संकल्प-विकल्पों से ऊपर उठकर ज्ञान-दर्शन रूप स्वभाव में रमण करना, विषय-कषाय से उपरत होकर क्षमता भाव में प्रतिष्ठित होना। दूसरे शब्दों में जीवन-समुद्र में ऊपरी सतह के आलोडन-विलोड़न, आंधी-तूफान, गर्जन-तर्जन से विरत होकर अन्तस् की गहराई में पैठना, समुद्र की मर्यादा और प्रशान्त स्थिति से जुड़ना, आत्म-मंथन कर यथार्थ का बोध करना, सच्चे अमृत-तत्त्व की प्राप्ति करना। ऐसी व्रतनिष्ठा और व्रत-धारण के लिए सम्यक् दृष्टि, सम्यक् चिन्तन और सम्यक श्रद्धान की आवश्यकता है। तथाकथित विज्ञान ने जो दृष्टि दी है उससे जागतिक पदार्थों से संबंधित अज्ञान का आवरण तो हटा है पर आत्म-ज्ञान के श्रद्धान् की वृत्ति बाधित हुई है। विज्ञान से मानव-मन की जो आकांक्षा बढ़ी है, उसने उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दिया है। जिसमें इस बात पर अधिक बल है कि आवश्यकताएं बढ़ाई जाएँ और नित्य नई-नई TE आवश्यकताएं पैदा की जाएँ। इच्छाओं की मांग के अनुरूप पूर्ति के साधन - जुटाना, यही सभ्यता का लक्षण है और वैज्ञानिक अनुसंधान का उद्देश्य भी। दूसरे शब्दों में उपभोक्ता संस्कृति ने व्रत के स्थान पर वासना को, त्याग TE के स्थान पर भोग को, संवेदना के स्थान पर उत्तेजना को, हार्दिकता के स्थान पर यांत्रिकता को अधिक महत्त्व दिया है। परिणामस्वरूप जीवन-सागर का मंथन कर आनन्द की, अमृत की प्राप्ति के लिये जिस प्रशम गुण की 454545454545454545454545 1488 -ााााना प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ । :

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