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आवश्यकता है, वह आज जीवन में नहीं सा है। प्रशान्तता का स्थान प्रचण्डता
ने ले लिया है। मन, वचन, कर्म क्षमा से न जुड़कर क्रोध से जुड़ते हैं, 'विनय 1 से न जुड़कर अहम् से जुड़ते हैं, सरलता से न जुड़कर वक्रता से जुड़ते ।
हैं, संतोष से न जड़कर लोभ से जुड़ते हैं, सरलता से न जुड़कर वक्रता
से जुड़ते हैं, परिणाम स्वरूप जिस आत्मीयता, करूणा और प्रमोद भावना FI का विकास होना चाहिए. वह नहीं हो पाता। उसके स्थान पर आक्रोश, विक्षोभ
और द्वन्द्व पनपता रहता है। अपने से अतिरिक्त जो जीवन-सष्टि है, उसके प्रति अनुराग का भाव विकसित नहीं हो पाता, उसके सुख-दुख में व्यक्ति हाथ नहीं बटा पाता, उससे अनुकम्पित नहीं हो पाता। जीवन के प्रति आस्थावान नहीं रह पाता। बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती, वह भोग के विभिन्न स्तरों में भटकती रहती है, उसे विवेक का आधार नहीं मिल पाता। दूसरे शब्दों में शम, संवेद, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था जैसे भाव चेतना के साथ जुड़ नहीं पाते और इनके अभाव में ज्ञान, प्रेम में नहीं बदल पाता, दर्शन आत्मस्वरूप का निरीक्षण नहीं कर पाता, चारित्र चित्त का अंग नहीं बन पाता। चित्त की वृत्ति प्रमाद में भटकती रहती है, ससन-विकारग्रस्त होकर जड़ और मूर्च्छित बनी रहती है। इन सबके दबाव से व्रतनिष्ठा और व्रत-धारणा कुंठित हो जाती है। व्रत-धारणा और व्रत-ग्रहण के लिये दृष्टि का सम्यक् होना आवश्यक है। दृष्टि सम्यक् तभी हो पाती है जब चेतना के मूल स्वभाव की पहचान हो। यह पहचान जीवन की सात्विकता, चित्त की निर्मलता, निशल्यता, वत्सलता और सत्यानुभूति पर निर्भर है। पर दुःख की बात है कि आज व्यक्ति बाहर से सरल दिखकर भी भीतर से वक्र है, बाहर से तरल दिखकर भी भीतर से शुष्क है। जब तक श्रद्धा, संयम, विनय, दया, शील, धैर्य जैसे गुणों का अंकुरण नहीं होता, तब तक व्रत की ओर कदम नहीं बढ़ाया जा सकता। व्रत की ओर कदम बढ़ाने के लिए हमें अशुभ से शुभ में प्रवृत्त होना होगा, विवेक को जागृत करना होगा, उपभोग के स्थान पर उपयोग दृष्टि को प्रतिष्ठित करना होगा।
जो भी पशुता से ऊपर उठा है. व्रत-नियम ग्रहण करके, उनकी पालना TE करके व्रत दीपक की तरह है, जिसके द्वारा व्याप्त अंधकार को छिन्न-भिन्न
किया जा सकता है। साधना की दृष्टि से व्रत के दो प्रकार हैं-अणुव्रत और महाबता अणुव्रत में "अणु"शब्द अल्पता का, छोटेपन का, स्थूलता का सूचक
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प्रशमति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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