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'अशोक वृक्ष' प्रतीक है कि भगवान की धर्मसभा में कोई शोक TE (आधि-व्याधि-उपाधि) नहीं है। पूरा वातावरण अशोकमय हैं। ऐसे वातावरण -1 में बैठे सभी जीव संसार से मुक्त होने के भावों से युक्त शक्ति का
कर रहे हैं। उत्तम आराध्य के सान्निध्य में मनुष्य शोक-दुख-चिंता से रहित TE हो जाता है।
'सिंहासन' उच्च एवं उत्कृष्ट आसन का प्रतीक है। वह सूचित करता है कि जिसने पांचों ज्ञान प्राप्त किये हैं, कर्ममल का क्षय किया है वे ही ऊँचे आसन के अधिकारी हैं। दूसरे यह आसन सिंह-आसन है। जो पूर्ण निर्मलता का सूचक है। जो संपूर्ण निर्भय है। जिन्हें संसार की माया या भय नहीं डरा सकता: और जो मृत्युंजयी बन गये हैं वे सिंह वत्ति वाले दढ पुरुष ही इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी होते हैं। ऐसे आराध्य का समागम जिसे प्राप्त हो वह धर्माचारी व्यक्ति सिंह वृत्ति अर्थात् निर्भयता प्राप्त करता है। वह तपाराधना में सिंह की भांति आरुढ़ होता है।
चॅवर' जो भगवान पर ढोले जा रहे हैं जो 64 प्रकार के हैं वे 64 कलाओं के प्रतीक हैं। भगवान आदिनाथ ने संसारी परुषों को जीवन यापन LE की जो 64 कलायें सिखाईं हैं उन्हीं के प्रतीक हैं।
तीन छत्र' जो क्रमशः छोटे से बड़े होते गये हैं वे रत्नत्रय के प्रतीक हैं। वे सूचित करते हैं कि चारित्र में उत्तरोत्तर दृढ़ बन कर ही मुक्ति पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। या जो रत्नत्रय गुणों को धारण करता है वह सिद्धत्व प्राप्त करता है।
'दुंदुभिनाद' प्रतीक है उस उद्घोष का जो मानों यह उद्घोषणा कर - रहा है कि 'हे संसार के त्रिताप से पीड़ित मनुष्य! धर्म आदि चत्तारि शरण' में आश्रय प्राप्त करो। जागृत बनो। धर्म की शरण ही संसार से मुक्ति दिला सकती है। 'पुष्पवृष्टि' वसंत की शोभा और शांति का प्रतीक है। जब ऐसा वासंती वातावरण होता है तभी हृदय में शांति एवं पवित्र तपयुक्त वातावरण
बनता है। इन दिव्य पुष्पों की वृष्टि इस ढंग से होती है कि जिसके पत्ते 卐 अधोमुख और दंडभाग ऊपर को होता है, ये इस तथ्य के प्रतीक हैं कि जब TE व्यक्ति आराध्य की शरण में आये, उन्हें अहम् त्यागकर श्रद्धापूर्वक नमन करें
ा तो पतित जन भी उर्ध्वमुखी बनकर धर्म की ऊँचाइयों' अर्थात् मुक्ति को प्राप्त 卐 कर सकता है। जब साधक उर्ध्वमुखी बनता है तब उसका जीवन पुष्प की
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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