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EFFIFIFIFIFIFIFAEI LE दिया था और आदेश दिया था कि तुम्हारे जैन धर्म में शक्ति हो तो उसकी
महिमा प्रगट करो और उसी के बल पर स्वयं मुक्त हो जाओ। उसी कारागृह 1 में शांतचित्त, स्थिर भाव से मुनिश्री अपने आराध्य आदिनाथ के ध्यान में लीन ।
हो गये तब भक्ति के पद स्वयं प्रस्फुटित होते गये और इस स्तोत्र की रचना 4 हो गई। कहते हैं कि एक-एक श्लोक की रचना होती गई और कारागृह - का एक-एक ताला स्वयं टूटता गया। बेड़ियाँ टूट गई। मुनिराज पूर्ण समता भाव से, वीतराग भावों को धारण किये हुए बाहर आये। उन्होंने राजा और राजदरबारियों को उसी समता भाव से 'धर्मलाम' का आशीर्वाद दिया।
इस कथा को भी प्रतीक ही माना जा सकता है। मनुष्य के जब अशुभ FI कर्म उदय में आते हैं तब वे बड़े-बड़े मुनिजनों को भी नहीं छोड़ते। उन्हें भोगना ही पड़ता है। परंतु, भेद-विज्ञान-दृष्टि प्राप्त जो सम्यक्त्वी जीव हैं वे इन आपत्तियों से घबराते नहीं हैं. चलित नहीं होते। ऐसे प्रसंगों को उपसर्ग । मानकर तपस्या में अधिक लीन रहते हैं। कर्मों का क्षय करते हैं और अधिक दृढ़ बनकर ऊपर उठते हैं। आचार्य मानतुंग भी ऐसे राजा के उपसर्ग TA
के सामने प्रभु की आराधना में लीन हो गये। उपसर्ग रूपी ग्रहण पूर्ण होते 57 - ही धर्मरूपी चन्द्र पुनः प्रकाशित हुआ। तालों में बंद करना भी इस बात का -
प्रतीक ही है कि मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्मों के ताले में बंद होने से चार गतियों में भ्रमण करता रहता है और, जब तक आत्मप्रदेश में स्थिर होकर उन कर्म के बंधनों को नहीं तोड़ता तब तक मुक्त नहीं हो सकता। इस प्रकार जेल ताला ये दो शब्द संसार एवं बद्धकर्मों के ही प्रतीक हैं, और आराधना उनसे मुक्त होने की क्रिया है।
मानतुंगसूरि प्रारंभ से ही आराध्य देव आदिनाथ के रूप-सौंदर्य एवं उनकी महिमा का गुणगान गाते हैं। भगवान के चरणमात्र भवसागर से तारने के लिए सक्षम हैं। यह संसार ‘पवनोधत्तनक्रचक्र' जैसा है, जहाँ विषय, काम विकार के झंझावात निरंतर संसार-सागर को तूफानी बनाकर आलोडित करते रहते हैं। विषय-वासना के मगरमच्छ लील जाने के लिये मुंह फैलाये हैं। ऐसे समय भगवान आदिनाथ का नाम स्मरण ही एकमात्र आधार है। इनकी आराधना ही सहारा है।
आचार्य, बारंबार वीतराग देव, उनके गुण एवं प्रभाव की तुलना सरागी देवों से करते हैं। इस तुलना हेतु वे अनेक सुन्दर प्रतीकों का प्रयोग करते
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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