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भक्तामरस्तोत्र में प्रतीक योजना
भक्तामरस्तोत्र जैनधर्म के चारों आम्नायों में मान्य एवं प्रचलित ' आराधना स्तोत्र है। इसमें भी विशेष रूप से मूर्तिपूजक दिगंबर व श्वेतांबर
आम्नाय में इसकी अधिक प्रसिद्धि व मान्यता है। और अधिक कहें तो जैन स्तोत्र-साहित्य में ही नहीं अपितु संस्कृत-साहित्य में भी उसका साहित्यिक दृष्टि से अद्वितीय स्थान है। आराध्य के गुण-सौन्दर्य और महिमा (अतिशय) का त्रिवेणीसंगम उसमें अक्षय रूप से प्रवाहित होता है। भाषा का सौन्दर्य, पद-लालित्य, अलंकारों की छटा एक ही स्थान पर देखी जा सकती है। इस कला पक्ष के सौन्दर्य का रहस्य भी कवि के हृदयपक्ष या भावपक्ष की विह्वलता
के कारण ही है। आराध्य की भक्ति एवं गुणकथन में तन्मय भक्त कवि मुनि - श्री मानतुंगसूरि मानों स्वयं आदिनाथमय बन गये थे। भक्त और आराध्य के
बीच अद्वैत संबंध बन गया था। भक्त जिस तरह भावविभोर हो जाता है वह - अवर्णनीय ही है। जब भक्त भक्ति की ऐसी चरम अवस्था को प्राप्त हो जाता - है तभी अन्तर के ऐसे भाव प्रस्फुटित होते हैं, अतः यह स्तोत्र स्वाभाविक रूप से ही मनोमुग्धकारी है।
इस स्तोत्र की महिमा इसकी अतिशयता एवं रिद्धि-सिद्धि के कारण भी अत्यंत प्रचलित हैं। धार्मिक दृष्टि से श्रद्धा भावना के कारण ऐसे स्तोत्रों 45 का पाठ और उनका साधना साधक को शांति, सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं। इस दृष्टि से भी इसकी महत्ता है।
इस लेख में मेरा उद्देश्य अतिशयों की महत्ता सिद्ध करना नहीं है, परंतु इस स्तोत्र में कवि ने जिन प्रतीकों को प्रस्तुत किया है, प्रतीकों के माध्यम से जो कथ्य या भाव अंकित किये हैं, उन पर ही अपने विचार प्रस्तुत करना
। सर्वप्रथम इस स्तोत्र के साथ मानतुंगाचार्य की जो कथा जुड़ी है, जिसमें यह उल्लेख है कि कुछ दुष्ट राजदरबारियों के भड़काने से राजा हर्षदेव ने आचार्य को बेड़ियों से जकड़कर 48 तालों वाली काल कोठरी में कैद कर
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ